साहब अमूमन हमारा मुंह
काला होता नही। कारण कि यह शर्म की तरह है, आये तो ठीक, न आये तो ठीक।
लेकिन आमिर खान के दलित समस्या के उपर किये कार्यक्रम में जो नंगी सच्चाई
सामने आई। उससे मैं नही समझता कि मुंह काला होने में कोई कसर बाकी थी। वैसे
अपने देश में भी एक गजब जुगाड़ है, कोई कुरीति सामने आये तो बाकी धर्म के
लोग पेट पकड़ पकड़ के हंसते है। जिस धर्म की कुरीति हो, वो अपने धर्म का
बचाव और दूसरे धर्म की कुरीतिया गिना अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है।
लेकिन आमिर खान ने सारे धर्मो को नंगा कर दिया, एक साथ एक ही मंच पर। आखिर
मल उठाने वाला, मल का जात पात तो नहीं ही पूछता। और मल करने वाला भी यह
कभी नही सोचता कि इसको उठायेगा किस धर्म का आदमी।
इस शो को देखने वाले और उसमें मौजूद नब्बे प्रतिशत लोग, मध्यमवर्ग और उससे उपर के ही रहे होंगे। भारत का बाजार भी यही है। हर समस्या पर राय रखने वाले कर्णधार भी वही। ये वही लोग है जो गरीबो को गाली बकते है कि- "साहब ये दारू पैसा लेकर, अपना वोट नकारो को दे आते हैं।" इनको लगता है कि ये दलित समस्या गांव का ’इशू’ है। और हम लोग कभी ऐसा नहीं करते। यह वर्ग दलितो से एक बैर भी पाले बैठा है कि ये लोग फ़ोकट में बिना नंबर पाये एडमिशन और नौकरी ले जाते हैं। पर इनके नजर में न आने वाले इस घृणित परंपरा को ये क्या कोई खत्म नही कर सकता। अपना मल खुद न उठाने और साफ़ करने की राजशाही अकड़ जब तक खत्म न होगी। तब तक उसे किसी न किसी को तो उठाना ही होगा कि नही।
अब आ जाईये खुद को दलित परंपरा से अछूते मानने वाले लोगो की गलियों में। कौन हमारे घर के सामने की नाली साफ़ करता है? क्या घरों का ’मल’ और उसका पानी सीधे नालियो में नही छोड़ा जाता ? हमारे सेप्टिक टैंक और ड्रेनेज सिस्टम के जाम होने पर कौन इसे साफ़ करने आता है? शहर के गटर जाम होने पर कौन उन्हें साफ़ करता है। यह वही समाज है, जिन्हे गांव मे "दलित" कहा जाता है और शहर मे प्यार से "स्वीपर"। अब तो सरकार फ़िर गांव गांव में अरबो रूपये हर घर में शौचालय योजना में लगा रही है। कारण यह है कि भाई खेतो में कोई हगने जाये तो वह मोटेंक सिंग आहलूवालिया को राष्ट्रीय शर्म की बात नजर आती है। तथाकथिक शुष्क शौचालय, जिसकी डिजाईन हम सुने है कि डीआरडीओ ने बनाई है।
राकेट का माल तो अतंरिक्ष में छोड़ा जा सकता है। धरती में आकर दस जनपथ में भी नही गिरेगा, आसमान में ही खाक हो जायेगा। लेकिन गांव की सीमित जगह में नया गढढा कैसे बने? साफ़ तो उसे भी करना ही होगा, करेगा कौन यह बात भी जाहिर ही है। हां ’अग्नी’ टाईप की कोई मिसाईल बन जाये कि शुष्क शौचालय को अंतरिक्ष मे ले जाकर फ़ेंक आये तब की बात अलग है।अपने नेता लोग भी बहुते दूर दृष्टी तो छोड़िये, नजदीक की दृष्टि वाले भी नही हैं। वरना सोनिया जी, मनमोहन जी, आडवानी जी, और हमारी राष्ट्रपती महा माननीय प्रतिभा पाटिल जी भी अपने सरकारी बंगलो में ही देख लेते, शौचालय और मल की सफ़ाई कौन कर रहा है। ऐसे में मुंह काला हो गया, ऐसी भावना मन में न आये तो ही ठीक।
और हां खेतो मे हगने कोई न जाये, आखिर किसी इज्जतदार देश में कोई खेतो मे हगने जाता है क्या भला? फ़िर बेचारे दलित बेरोजगार न हो जायेंगे। जब मल ही न होगा तो उठायेंगे क्या, करेंगे क्या ? वैसे भी राष्ट्रीय शर्म का विषय वह होता है जिसे दूर भले न किया जा सके। पर दूर करने का ढोंग जरूर किया जा सकना चाहिये। अब मैला साफ़ करने को बंद करने का ढोंग भी करना हो तो मोंटेक सिंग करवाये किससे। बाकी लोग तो करने से रहे जिनसे अपना साफ़ नही किया जाता वो भला दूसरो का कैसे करे? मजे की बात देखिये यह बात मेरे भी दिमाग में तभी आयी जब मै आमिर का शो देख रहा था। वरना आज के पहले मेरे घर का भी मैला साफ़ करने कोई विदेश से तो नहीं ही आ रहा था।
इस शो को देखने वाले और उसमें मौजूद नब्बे प्रतिशत लोग, मध्यमवर्ग और उससे उपर के ही रहे होंगे। भारत का बाजार भी यही है। हर समस्या पर राय रखने वाले कर्णधार भी वही। ये वही लोग है जो गरीबो को गाली बकते है कि- "साहब ये दारू पैसा लेकर, अपना वोट नकारो को दे आते हैं।" इनको लगता है कि ये दलित समस्या गांव का ’इशू’ है। और हम लोग कभी ऐसा नहीं करते। यह वर्ग दलितो से एक बैर भी पाले बैठा है कि ये लोग फ़ोकट में बिना नंबर पाये एडमिशन और नौकरी ले जाते हैं। पर इनके नजर में न आने वाले इस घृणित परंपरा को ये क्या कोई खत्म नही कर सकता। अपना मल खुद न उठाने और साफ़ करने की राजशाही अकड़ जब तक खत्म न होगी। तब तक उसे किसी न किसी को तो उठाना ही होगा कि नही।
अब आ जाईये खुद को दलित परंपरा से अछूते मानने वाले लोगो की गलियों में। कौन हमारे घर के सामने की नाली साफ़ करता है? क्या घरों का ’मल’ और उसका पानी सीधे नालियो में नही छोड़ा जाता ? हमारे सेप्टिक टैंक और ड्रेनेज सिस्टम के जाम होने पर कौन इसे साफ़ करने आता है? शहर के गटर जाम होने पर कौन उन्हें साफ़ करता है। यह वही समाज है, जिन्हे गांव मे "दलित" कहा जाता है और शहर मे प्यार से "स्वीपर"। अब तो सरकार फ़िर गांव गांव में अरबो रूपये हर घर में शौचालय योजना में लगा रही है। कारण यह है कि भाई खेतो में कोई हगने जाये तो वह मोटेंक सिंग आहलूवालिया को राष्ट्रीय शर्म की बात नजर आती है। तथाकथिक शुष्क शौचालय, जिसकी डिजाईन हम सुने है कि डीआरडीओ ने बनाई है।
राकेट का माल तो अतंरिक्ष में छोड़ा जा सकता है। धरती में आकर दस जनपथ में भी नही गिरेगा, आसमान में ही खाक हो जायेगा। लेकिन गांव की सीमित जगह में नया गढढा कैसे बने? साफ़ तो उसे भी करना ही होगा, करेगा कौन यह बात भी जाहिर ही है। हां ’अग्नी’ टाईप की कोई मिसाईल बन जाये कि शुष्क शौचालय को अंतरिक्ष मे ले जाकर फ़ेंक आये तब की बात अलग है।अपने नेता लोग भी बहुते दूर दृष्टी तो छोड़िये, नजदीक की दृष्टि वाले भी नही हैं। वरना सोनिया जी, मनमोहन जी, आडवानी जी, और हमारी राष्ट्रपती महा माननीय प्रतिभा पाटिल जी भी अपने सरकारी बंगलो में ही देख लेते, शौचालय और मल की सफ़ाई कौन कर रहा है। ऐसे में मुंह काला हो गया, ऐसी भावना मन में न आये तो ही ठीक।
और हां खेतो मे हगने कोई न जाये, आखिर किसी इज्जतदार देश में कोई खेतो मे हगने जाता है क्या भला? फ़िर बेचारे दलित बेरोजगार न हो जायेंगे। जब मल ही न होगा तो उठायेंगे क्या, करेंगे क्या ? वैसे भी राष्ट्रीय शर्म का विषय वह होता है जिसे दूर भले न किया जा सके। पर दूर करने का ढोंग जरूर किया जा सकना चाहिये। अब मैला साफ़ करने को बंद करने का ढोंग भी करना हो तो मोंटेक सिंग करवाये किससे। बाकी लोग तो करने से रहे जिनसे अपना साफ़ नही किया जाता वो भला दूसरो का कैसे करे? मजे की बात देखिये यह बात मेरे भी दिमाग में तभी आयी जब मै आमिर का शो देख रहा था। वरना आज के पहले मेरे घर का भी मैला साफ़ करने कोई विदेश से तो नहीं ही आ रहा था।
बहुत सटीक तरीके से आपने अपनी बात यहाँ कही ... आभार !
ReplyDeleteआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है, तेजाब :- मनचलों का हथियार - ब्लॉग बुलेटिन, के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
हँसते हुए कड़वी सच्चाई को कहना एक सुंदर कला है. बढ़िया लिखा है दवे जी.
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