रात को सोते समय श्रीमती ने पूछ लिया - "क्यों जी आपको स्वर्ग में 72 हूरें मिल जायेंगी तो आप क्या करोगे"। हमने कहा - " बिल्कुल आपकी तरह दिखती होंगी तो ठीक वरना हम लौटा देंगे।" श्रीमति प्रसन्न होकर सो गयीं और हम भी नींद के आगोश मे चले गये।" सपने में हमने देखा कि हम अस्पताल में भर्ती हैं और हमें स्व. श्रीलाल शुक्ल जी की तरह ज्ञानपीठ पुरुस्कार देने स्वयं राज्यपाल आये हैं। हमें तभी अंदर से सदबुद्धी ने टोका- " तुझे कहीं पुरूस्कार मिल सकता है रे बुड़बक।" हमनें जवाब दिया- " मियां जिस तरह पुरूस्कारों का स्तर गिर रहा है, हमारे बुढ़ाते तक ज्ञानपीठ पुरुस्कार भी ऐरे गैरों को मिलने लगेगा।" खैर साहब फ़िर हम सपने में टपक गये और सीधा स्वर्ग या कहें जन्नत के दरवाजे में पहुंचे।
वहां एक पंडित टाईप और एक मौलवी टाईप द्वारपाल खड़े थे। हमसे पूछा गया कि हिंदू हो या मुसलमान। हमें तत्काल 72 हूरों की बात याद आयी, चूंकि हम ब्राह्मण हैं और वेद पुराण भी बांची है। तो हमे हमे पता था कि अप्सराओं का जिक्र तो है, पर कितनी मिलेंगी इसकी कोई गारंटी नही दी गयी है। सो हमने मुसलमान वाला आप्शन चुना। मौलवी द्वारपाल ने हमारा हिसाब निकाला, बड़े गौर से पढ़ने लगा कि हमे जन्नत अता की जाये या दोजख में धकेल दिया जाये। आखिर में उसने घोषणा की - " वैसे तो जनाब व्यंग्यकार थे और जो लिखा उससे लोग जले भुने ही हैं और नेकी का कोई काम भी नही किया है। पर कर्तव्य की सीमा से आगे बढ़ कर खतरनाक बीबी की मौजूदगी के बावजूद, तहे दिल से घर का झाड़ू, पोछा, बर्तन, चौका करने और बीबी की झिड़कियों को सुनने के बावजूद इसने इसका दोष कभी अल्लाह को न दिया। हर दम अपनी बेवकूफ़ी को ही कोसता रहा। गोया इसे दोजख में मिलने वाले सारे दंड जमीन पर ही मिल चुके है। इसलिये इस इंसान को जन्न्त अता फ़रमाई जाती है।"
हमें जन्नत के अंदर ले जाया गया और द्वारपाल ने 72 हूरों को बुलवाया और उनसे कहा लो जन्नत का मजा अब ये तुम्हारे हवाले। हम सकपकाये कहा- " हुजूर जन्नत का मजा लेने हम आये हैं कि ये हूरें। द्वारपाल ने ठहाका लगाया - "बड़े व्यंग्यकार बने फ़िरते थे मियां, हम तो मजाक कर रहे थे और आप हैं कि घबरा गये।"
खैर साहब द्वारपाल ने बुरका पहनी हूरों को हमारे हवाले किया। हमने कहा- हुजूर जन्नत में भी बुरका। " द्वारपाल बोला- "आदमी को 72 मिलें या 72 सौ, मन तो उसका भरता नही और जन्न्त में परायी औरत पर नजर टिकी नही कि सीधे दोजख मे डाल दिया जाता है। सो आप जैसे लंपट जन्नत का मजा ले सके इसलिये ये सावधनी बरती गयी है। द्वारपाल के जाने के बाद हम नर्विसिया गये, मुसलमान होते तो कम से कम चार को संभालने का अनुभव होता यहा तो हम एक भी ठीक से हैंडल न कर पाये थे और अब मामला 72 को संभालने का था।
हमने सोचा जब जन्न्त में ही रहना है तो जल्दबाजी कैसी, जरा टहल लिया जाये। सो हमने 71 हूरों से अलग अलग तरह के पकवान बनाने को कहा और एक को साथ ले निकल पड़े। सैर के दौरान हमने हूर से गुजारिश की- " बेगम जरा अपना चेहरा तो दिखाओं।" हूर ने सकुचाई सी मीठी आवाज में कहा- " हम केवल हरम में बुरका हटा सकते हैं बाकी जगह पाबंदी है"। हमने सोचा, खामखा हड़बड़ी की तो जमीन की बेगम की तरह इन बेगमो पर भी हमारा गलत इंप्रेशन पड़ जायेगा। एक बार इज्जत गवांई तो चौका बर्तन ही नसीब होता है इस बात का हमे अनुभव था ही।
घूमते घूमते हमें एक और जन्नत नशीं सज्जन मिलें, वे पूरे काफ़िले साथ थे। दुआ सलाम हुयी, हमने कोने में लेकर पूछा- "72 बेगमों को हैंडल कैसे किया जाये, आपने अलग अलग दिन बांधे है कि कोई और व्यवस्था की है।" वे हसने लगे बोले - "मियां अब आप जमीन पर नही जन्नत में हो, यहां ये नही कि दस पराठे खाये और पेट भर गया चाहो तो हजार खा लो।" हमने सोचा ये बात तो अपने भेजे में आयी ही न थी। खुदा ने 72 हूरें दी है तो सोच समझ कर ही न जन्नत आखिर जन्नत कहलाती किसलिये है। हमने सज्जन से हंसी खुशी विदा ली और हूर से कहा अब हम हरम में आराम करना चाहेंगे।
हरम पहुंच कर, बड़े चाव से हमने पकवानों का मदिरा का जी भर आनंद लिया। अब आप ये मत सोच लेना कि चाहे सौ पैग पिये और चढ़ी नह॥ चढ़ी पर बस इतनी कि सुरूर आ जाये, उसके बाद हमने बत्तियां बुझाने का आर्डर फ़रमाया। फ़िर हुआ क्या ये तो न बता पायेंगे पर तत्काल हरम से दौड़ते भागते हम द्वारपाल के पास पहुंचे। द्वारपाल ने पूछा- क्या हुआ मियां, खैरियत तो है। हमने कहा - " हुजूर आपसे गड़बड़ हो गयी वो हूर तो हैं पर हूर नही है" द्वारपाल बोला - "मियां हूर तो हैं पर हूर नही है ये क्या कह रहे हो। " हमने फ़ुसफ़ुसाकर कान में कहा- " हुजूर जो हूर आपने दी हैं वो न तो खातून है और न ही मर्द।" द्वारपाल हसने लगा - "मियां और तुम खुद क्या हो ये तो देखो।" हमने देखा तो हम और बौखला गये, हम भी उन खातूनों की तरह बीच का मामला बन चुके थे।
हम द्वारपाल के सामने मिमियाये - "हुजुर, कम से कम हम को तो ठीक कर दो।" द्वारपाल और जोर से हंसा- "मियां तुम अभी तक जमीन मामलो में अटके हो, मरने के बाद तो रूह ही जन्नत में आती है शरीर थोड़ी न आता है। रूह तो न आदमी होती है और न औरत, वो तो मां के पेट अल्लाह उसे आदमी और औरत में तक्सीम कर देता है।"
हमने पूछा- " फ़िर उन हूरों का क्या करें।" द्वारपाल बोला - "अबे रूह हो, रुहानी मजा लो।" हम गुस्से में आ कर जन्नत के बाहर भागने लगे तो द्वारपाल ने पकड़ा- " अब कहा जा रहे हो तुम।" हमने कहा- " उस धोखेबाज, कमीनी तस्लीमा नसरीन को पीटने। खामखा लोगो को बरगलाती है कि आदमी है तो जन्नत में हूरो के साथ ऐश करेगा और औरत हो तो जमीन में ही ऐश कर लो।"
तभी हमारी आंख खुली तो हमारा बेटा हमें झकजोर रहा था - " पापा उठो किसको धोखेबाज, कमीनी कह के नींद में चिल्ला रहे हो।" तभी पीछे से श्रीमती की आवाज गूंजी - " रहने दे बेटा, कल हूर की बात की थी तो सपने में किसी हूर के पास पहुंच गये होंगे, उसने भगाया होगा तो बड़बड़ा रहे हैं।" खैर साहब हमने राहत की सांस ली कि जिंदा भी है और 72 हूरें न सही, हमारी रग रग पहचानने वाली श्रीमती तो है। और उनके रहते हमारा जन्नत जाना तय है यह तो आप अब तक जान ही चुके होंगे।
वहां एक पंडित टाईप और एक मौलवी टाईप द्वारपाल खड़े थे। हमसे पूछा गया कि हिंदू हो या मुसलमान। हमें तत्काल 72 हूरों की बात याद आयी, चूंकि हम ब्राह्मण हैं और वेद पुराण भी बांची है। तो हमे हमे पता था कि अप्सराओं का जिक्र तो है, पर कितनी मिलेंगी इसकी कोई गारंटी नही दी गयी है। सो हमने मुसलमान वाला आप्शन चुना। मौलवी द्वारपाल ने हमारा हिसाब निकाला, बड़े गौर से पढ़ने लगा कि हमे जन्नत अता की जाये या दोजख में धकेल दिया जाये। आखिर में उसने घोषणा की - " वैसे तो जनाब व्यंग्यकार थे और जो लिखा उससे लोग जले भुने ही हैं और नेकी का कोई काम भी नही किया है। पर कर्तव्य की सीमा से आगे बढ़ कर खतरनाक बीबी की मौजूदगी के बावजूद, तहे दिल से घर का झाड़ू, पोछा, बर्तन, चौका करने और बीबी की झिड़कियों को सुनने के बावजूद इसने इसका दोष कभी अल्लाह को न दिया। हर दम अपनी बेवकूफ़ी को ही कोसता रहा। गोया इसे दोजख में मिलने वाले सारे दंड जमीन पर ही मिल चुके है। इसलिये इस इंसान को जन्न्त अता फ़रमाई जाती है।"
हमें जन्नत के अंदर ले जाया गया और द्वारपाल ने 72 हूरों को बुलवाया और उनसे कहा लो जन्नत का मजा अब ये तुम्हारे हवाले। हम सकपकाये कहा- " हुजूर जन्नत का मजा लेने हम आये हैं कि ये हूरें। द्वारपाल ने ठहाका लगाया - "बड़े व्यंग्यकार बने फ़िरते थे मियां, हम तो मजाक कर रहे थे और आप हैं कि घबरा गये।"
खैर साहब द्वारपाल ने बुरका पहनी हूरों को हमारे हवाले किया। हमने कहा- हुजूर जन्नत में भी बुरका। " द्वारपाल बोला- "आदमी को 72 मिलें या 72 सौ, मन तो उसका भरता नही और जन्न्त में परायी औरत पर नजर टिकी नही कि सीधे दोजख मे डाल दिया जाता है। सो आप जैसे लंपट जन्नत का मजा ले सके इसलिये ये सावधनी बरती गयी है। द्वारपाल के जाने के बाद हम नर्विसिया गये, मुसलमान होते तो कम से कम चार को संभालने का अनुभव होता यहा तो हम एक भी ठीक से हैंडल न कर पाये थे और अब मामला 72 को संभालने का था।
हमने सोचा जब जन्न्त में ही रहना है तो जल्दबाजी कैसी, जरा टहल लिया जाये। सो हमने 71 हूरों से अलग अलग तरह के पकवान बनाने को कहा और एक को साथ ले निकल पड़े। सैर के दौरान हमने हूर से गुजारिश की- " बेगम जरा अपना चेहरा तो दिखाओं।" हूर ने सकुचाई सी मीठी आवाज में कहा- " हम केवल हरम में बुरका हटा सकते हैं बाकी जगह पाबंदी है"। हमने सोचा, खामखा हड़बड़ी की तो जमीन की बेगम की तरह इन बेगमो पर भी हमारा गलत इंप्रेशन पड़ जायेगा। एक बार इज्जत गवांई तो चौका बर्तन ही नसीब होता है इस बात का हमे अनुभव था ही।
घूमते घूमते हमें एक और जन्नत नशीं सज्जन मिलें, वे पूरे काफ़िले साथ थे। दुआ सलाम हुयी, हमने कोने में लेकर पूछा- "72 बेगमों को हैंडल कैसे किया जाये, आपने अलग अलग दिन बांधे है कि कोई और व्यवस्था की है।" वे हसने लगे बोले - "मियां अब आप जमीन पर नही जन्नत में हो, यहां ये नही कि दस पराठे खाये और पेट भर गया चाहो तो हजार खा लो।" हमने सोचा ये बात तो अपने भेजे में आयी ही न थी। खुदा ने 72 हूरें दी है तो सोच समझ कर ही न जन्नत आखिर जन्नत कहलाती किसलिये है। हमने सज्जन से हंसी खुशी विदा ली और हूर से कहा अब हम हरम में आराम करना चाहेंगे।
हरम पहुंच कर, बड़े चाव से हमने पकवानों का मदिरा का जी भर आनंद लिया। अब आप ये मत सोच लेना कि चाहे सौ पैग पिये और चढ़ी नह॥ चढ़ी पर बस इतनी कि सुरूर आ जाये, उसके बाद हमने बत्तियां बुझाने का आर्डर फ़रमाया। फ़िर हुआ क्या ये तो न बता पायेंगे पर तत्काल हरम से दौड़ते भागते हम द्वारपाल के पास पहुंचे। द्वारपाल ने पूछा- क्या हुआ मियां, खैरियत तो है। हमने कहा - " हुजूर आपसे गड़बड़ हो गयी वो हूर तो हैं पर हूर नही है" द्वारपाल बोला - "मियां हूर तो हैं पर हूर नही है ये क्या कह रहे हो। " हमने फ़ुसफ़ुसाकर कान में कहा- " हुजूर जो हूर आपने दी हैं वो न तो खातून है और न ही मर्द।" द्वारपाल हसने लगा - "मियां और तुम खुद क्या हो ये तो देखो।" हमने देखा तो हम और बौखला गये, हम भी उन खातूनों की तरह बीच का मामला बन चुके थे।
हम द्वारपाल के सामने मिमियाये - "हुजुर, कम से कम हम को तो ठीक कर दो।" द्वारपाल और जोर से हंसा- "मियां तुम अभी तक जमीन मामलो में अटके हो, मरने के बाद तो रूह ही जन्नत में आती है शरीर थोड़ी न आता है। रूह तो न आदमी होती है और न औरत, वो तो मां के पेट अल्लाह उसे आदमी और औरत में तक्सीम कर देता है।"
हमने पूछा- " फ़िर उन हूरों का क्या करें।" द्वारपाल बोला - "अबे रूह हो, रुहानी मजा लो।" हम गुस्से में आ कर जन्नत के बाहर भागने लगे तो द्वारपाल ने पकड़ा- " अब कहा जा रहे हो तुम।" हमने कहा- " उस धोखेबाज, कमीनी तस्लीमा नसरीन को पीटने। खामखा लोगो को बरगलाती है कि आदमी है तो जन्नत में हूरो के साथ ऐश करेगा और औरत हो तो जमीन में ही ऐश कर लो।"
तभी हमारी आंख खुली तो हमारा बेटा हमें झकजोर रहा था - " पापा उठो किसको धोखेबाज, कमीनी कह के नींद में चिल्ला रहे हो।" तभी पीछे से श्रीमती की आवाज गूंजी - " रहने दे बेटा, कल हूर की बात की थी तो सपने में किसी हूर के पास पहुंच गये होंगे, उसने भगाया होगा तो बड़बड़ा रहे हैं।" खैर साहब हमने राहत की सांस ली कि जिंदा भी है और 72 हूरें न सही, हमारी रग रग पहचानने वाली श्रीमती तो है। और उनके रहते हमारा जन्नत जाना तय है यह तो आप अब तक जान ही चुके होंगे।
"हुजुर, कम से कम हम को तो ठीक कर दो।" द्वारपाल और जोर से हंसा- "मियां तुम अभी तक जमीन मामलो में अटके हो, मरने के बाद तो रूह ही जन्नत में आती है शरीर थोड़ी न आता है। रूह तो न आदमी होती है और न औरत, वो तो मां के पेट अल्लाह उसे आदमी और औरत में तक्सीम कर देता है।".................बिलकुल सही बात
ReplyDeleteकहीं भील से फेसबुक की महिलाओं को ही जन्नत की हूर तो नहीं समझ बैठे हो!
ReplyDelete--
बढ़िया व्यंग्य है ज़नाब!
लाज़वाब ! बहुत रोचक और सटीक ...
ReplyDeleteहा हा हा. क्या बात है. शानदार व्यंग्य
ReplyDeleteबहुत बढ़िया व्यंगात्मक प्रस्तुति ....
ReplyDeleteअरुणेश जी ! कब आ गए जन्नत घूम कर ? पता भी नहीं चला वरना हम भी आपके साथ घूम आते !
ReplyDeleteरहो जन्नत मे, मजे लो मन्नत के, तुम्हे धोखे से हूरों की जगह गिलमें थमा दिए हो्गें :))
ReplyDeleteवाह! एक साँस में पढ़ गए आपके इस व्यंग्य को|
ReplyDeleteबहुत मजेदार और उनकी आँखें खोलने वाला जो ७२ हूरें पाने के चक्कर में अंधे हो अपराध कर बैठते है|
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“घूम आये जन्नत भी, भाई अब अरुणेश
ReplyDeleteहूरों से भी मिल लिये, नोचे फिर भी केश?”
हा हा हा हा...
“ऐसे ऐसे ख्वाब हैं, भाई इनके पास
खिन्न मन भी आओ तो, होगे नहीं उदास”
सादर बधाई
HA HA HA
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग्य...
ReplyDeleteकल के चर्चा मंच पर, लिंको की है धूम।
ReplyDeleteअपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।
…
ReplyDeleteरग रग पहचानने वाली श्रीमती तो है।
ReplyDeleteकरारा.
शनदार व्यंग्य. बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteजय हो!
ReplyDeleteइन हूरों की खबर तो मिली!
अच्छा व्यंग!
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