Thursday, November 29, 2012

भारतीयों का "नुन्नू" सबसे छोटा


सुबह सवेरे हमारे पड़ोसी चिंताराम जी अत्यंत चिंतित अवस्था में हमारे पास पहुंचे। फ़ुसफ़ुसा कर बोले- ’ दवे जी गजब हो गया, अभी अभी सर्वे की खबर आयी है कि भारतीयों का सबसे छोटा होता है।" हमने कहा - ’देखो मियां दिल बड़ा होने का कोई फ़ायदा भी नहीं है। कोई दूसरी समां गयी तो भारतीय बीबीयां मार मार के छप्पर कर देती है।’ चिंताराम जी बोले -’ गुरू दिल नहीं सामान छोटा होता है’’ हमने कहा-  यार कौन सा सामान है आगे से बड़ा बनवा लिया जायेगा।’  चिंताराम जी का मुंह उतर गया- ’ बोले, अब कुछ नही हो सकता गुरू अनुवांशिक साईज है। आप समझ नहीं रहे हम उस सामान विशेष का बात कर रहे है जिससे प्रजनन होता है। यह बात बीबीयों को मालूम पड़ जायेगी तो हम लोग क्या मुंह दिखायेंगे। रोज टांट सुनने मिलेगा "है छोटा सा, बस बातें बड़ी बड़ी करवा लो।’ 



 हमने उन्हे ढांढस बंधाया - ’देखो चिंताराम जी अंग्रेजी में कहावत है, "When it happens to all it happens to none।" जब सभी भारतीयों का छोटा है तो यह कोई टांट का विषय नही। भगवान ने हर देश के आदमी औरत का डिजाईन एक दूसरे के हिसाब से न बनाया है भाई।  आजकल तो महिलायें खुद ही साईज जीरो के पीछे पड़ी हैं।' चिंताराम जी बोले -’ दवे जी लफ़्फ़ाजी से सच झूठ नहीं हो जाता।  इस खबर को सेंसर करवाईये,  वरना कहीं मुह दिखाने लायक नहीं रहा जायेगा’ हमने चिंतित अवस्था में कहा-  ’चिंताराम जी ये बताओ पाकिस्तानियों का साईज क्या है। ’ चिंताराम जी मुस्कुराते हुये बोले - ’ अपने ही बराबर का है गुरू। हमने कहा - ’ फ़िर तो टेंशन की बात नही है।  नही साले सुबह शाम छेड़ते,  इस मुद्दे पर जवाब देना भी मुश्किल हो जाता। अब  ये हिंदुओ को दुनिया में सबसे श्रेष्ठ,  मुसलमानों को दुनिया में सबसे श्रेष्ठ  बताने वालों को तो मुंह छुपाने का जगह भी नहीं मिलेगा। बड़े साईज वाला एक मिनट में कह देगा ’जा बे मेरा सात इंच का है तेरा सिर्फ़ चार का।"

चिंताराम जी भड़क गये - ’ दवे जी,   दुखी होने वाली बात पर दांत निपोर रहे हो। यहां हिंदुस्तानियो की मर्दानगी दांव पर लग गयी है और आप को ठिठोली सूझ रहा है। ’ हमने कहा - ’ काहे चिढ़कते हो भाई, सेक्स में सामान विशेष का साईज मैटर नहीं करता है यह वैज्ञानिक तथ्य है।  अपने बड़े बूढ़े कह भी गये है- ’बड़ा हुआ सो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।’  फ़िर अपन भारतीय तो बच्चा पैदा करने में विश्व गुरू हईये हैं। चिंताराम जी बोले - " कुछ भी कहो दवे जी यह भारतीय मर्दों को बदनाम करने की साजिश है। हमने कहा - "भाई अब इसके लिये तो विश्व हिंदु परिषद और जमाते इस्लामी को  कुछ करना पड़ेगा। दिन रात एक दूसरे के साथ साजिश साजिश खेलते रहते है मिल कर विदेशियो की साजिश का सामना करें। वैसे यह मामला पूरे देश मे एकता ला सकता है। लोग धर्म जात भूल कर सामान विशेष के सम्मान की रक्षा के लिये एक जुट हो जायेंगे। मै तो कहता हूं केजरीवाल की ’आम आदमी पार्टी’ को इस मुद्दे को हाईजैक कर लेना चाहिये।"

चिंता राम जी गुस्से से बोले - " यार हर समय मजाक सूझता है आपको। मुद्दे पर आओ इस दुष्प्रचार के खिलाफ़ कुछ राह बताओ।" हमने कहा - ’ मियां यह सब सर्वे मनगढ़ंत होते है, आधे अधूरे तथ्य लेकर बहुत कम सैंपल साईज लेकर मन चाहा नतीजा निकाल लिया जाता है। देखते नहीं अपने चुनाव विष्लेषण को सब सर्वे वाले बाद में  मुंह छुपाते घूमते है।  आप  जिस देश के सामान विशेष की साईज सबसे बड़ी है उनका परफ़ारमेंस टाईम सबसे कम बना और छोटी साईज वालो का परफ़ार्मेंस टाईम सबसे अधिक कर थोड़ा हेर फ़ेर कर  अपना नतीजा घोषित कर दो। साईज से परफ़ामेंस टाईम ज्यादा मैटर करता है।’ इतना सुनते ही चिंताराम जी प्रसन्न होकर घर को लौट गये। और रही बात हमारी तो हमे कोई चिंता है ही नही। हम तो शादीशुदा हो बुढ़ापे की ओर अग्रसर हैं। चिंता कुंवारे करे कि सुंदरियां विदेशियो के प्रलोभन में न आ जायें। वैसे इस मामले में युवाओ को बाबा रामू का स्वदेशी आंदोलन ज्वाईन कर लेना चाहिये। बाबा रामू कोई जड़ी बूटी खोज भी लायेंगे। इस मामले में वे पतंजली रिषी के ताउ हैं। लौकी से गाजर तक नित नया डिस्कवरी करते रहते हैं। इससे पहले कि जापानी तेल वाले इस सर्वे का नतीजा उड़ा ले स्वदेशी बाबा क्या बुरा रहेगा। देश का पैसा और इज्जत दोनो देश में रही आयेगी। 

Sunday, November 25, 2012

कसाब की फ़ांसी गलत




देखिये साहब कसाब  दीन की राह में शहीद हो खुदा से हूरों को पाने के बिजनेस के सिलसिले में अवैध तरीके से भारत आया था। कितने लोग मरें इसका कोई एग्रीमेंट नहीं था, जितने मार सको उतने मारो।  किनारे उतरते ही मरता, कश्ती पलटने से मरता तो भी डील कायम रहती। सो पकड़ा जाने से भी उसके इस एग्रीमेंट में कोई फ़र्क पड़ने वाला नही था। सौदा तभी टूटता जब वो बुढ़ापे में अपनी मौत मरता।  प्रधानमम्मी सोनिया ने सब गुड़ गोबर कर दिया,  अपनी इमेज के लिये  उसको  शहीद बना दिया। अपना दुख  भाजपाई मित्र पर जाहिर किया तो वे भड़क गये- "पहले तो जान लो दवे जी, कसाब फ़ांसी से नही डेंगू से मरा है।   मच्छर भी कांग्रेसियों से देशभक्त  निकले ये तो बिरयानी खिला  रहे थे।" उनको बताया कि भाई फ़ांसी का वीडियो शूटिंग हुआ है, अब तक जन्नत में हूरों की डिलेवरी भी ले चुका होगा।" तो कहते है- "पहले दिन ही लटका देना था चौराहे में।  कोई हूर-वूर,  सब बकवास बात है।" हमने उनसे स्वर्ग और अप्सरा वाला मामला नही पूछा। फ़ोकट देशद्रोही सेकुलर का लेबल मिल जाता।

खैर मुस्लिम मित्र से पूछा तो बोले -" इस्लाम में  निर्दोष की, महिलाओं, बच्चो की जान लेने पर दोजख जाना पड़ता है।" हम कहें कि - "देखो मियां,  बेचारे कसाब को तो पता नही था ना ये।  बाद में कितना पछताया। वह तो बेचारा सच्चे दिल से खुदा की राह पर चलना चाहता था। दोजख तो उस मौलवी और हाफ़िज सईद को मिलेगी जिन्होने इसे बरगलाया था।" तो जवाब मिलता है कि मूर्खो को जन्नत नसीब नही होती। बुरे काम का बुरा नतीजा ही निकलता है।"

 वैसे देश में कसाब की फ़ांसी पर और तरह तरह की प्रतिक्रियाएं भी आ रहीं है। एक सुशील झा लिखते है- "किसी ने ट्विटर पर लिखा कि सोचिए बीस साल के बाद कसाब यरवदा जेल में सूत कात रहा होता और उस सूत से बना कुर्ता पाकिस्तान के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को भेंट किया गया होता। सोचिए कि कसाब टीवी चैनलों पर सूत कातते हुए कहता कि मैं आज भी पश्चाताप कर रहा हूं अल्लाह मुझे माफ करें।....... सोचिए वो कितनी बड़ी नैतिक जीत होती भारतीय मूल्यों की पूरी दुनिया में."

 यह पढ़ते ही कानो में "रघुपति राघव" भजन बजने लगा। अहिंसा, शांती, प्रेम, दया...... आहाहाहा नारायण नारायण।  ऐसे उत्तम लोग आजकल मिलते ही कहा है। और अपना पड़ोसी पाकिस्तान तो अति उत्तम है। वो कितनो को  सूत कातने भेजेगा पता नहीं।  कसाब की बुनी खादी का कुर्ता पहने जनता के हितैषी नेता बड़े सेक्सी भी नजर आयेंगे।  आखिर जो देश कसाब पर दया कर सकता है वो अपनी जनता पर भी एक न एक दिन दया करेगा न भाई।  खैर बात वैसे बुरी नही आंख के बदले आंख वाली कबीलाई संस्कृती से उपर उठना भी चाहिये ही।  लेकिन इस उत्तम विचार को ट्वीटर पर चपकाने वाले महात्मा ने शायद इस बारे मे विचार नही किया होगा  कि भारत की गरीब जनता के पास खुद खाने को कुछ नही। दिल्ली के प्रेस क्लब मे हाफ़ रेट की महंगी व्हिस्  ी पीने और मुर्गा चबाने के बाद दयालु  हुआ जा सकता है।  पर सूखी रोटी चबाने वाले के मोबाईल मे "यह सुविधा आपको उपलब्ध नही है" का रिंग टोन बजने लगता है।

कई भाई जनता के सामने उन्माद परोसने की रोमन ग्लैडियेटरी संस्कृती का भी हवाला दे रहे है। तो एक सज्जन भारत फ़ांसी पाये लोगो मे नब्बे प्रतिश्त आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक होने का दावा कर रहे थे। एक दूसरे सज्जन जार्ज ओरवेल के हाथी के शिकार और कसाब की फ़ांसी में उचित संबंध जोड़ रहे थे।  हाथी ने "मस्त" की अवस्था में तोड़ फ़ोड़ की, आदमी को मारा था। कसाब ने "गुमराह" की अवस्था में यह किया था।  दोनो बुरी हरकतो के बाद शांत हो गये थे। सज्जन के हिसाब से उन दोनो को मारे जाने का कोई औचित्य नही था।"  दोनो को तमाशबीन जनता के दबाव में मार दिया गया था। हमने सोचा- ’अपना कसाब तो माफ़ी भी मांग रहा था,  हाथी ने तो माफ़ी भी नही मांगी थी। उसको तो और नही मारना था।"  खैर वो सज्जन मिलें तो हम पूछे- " भाई हाथी तो "मस्त" की अवस्था खत्म होने के बाद काम का, लाखों रूपये का था। कसाब तो "गुमराह" की अवस्था खत्म होने के बाद लाखो रूपया रोज  खर्च करवा रहा था,  दोनो में तुलना कैसी? लेकिन इसके बाद भी हम सहमत हैं कि कसाब और हाथी दोनो को मारना नही था। आखिर साले की डील पूरी हो गयी हूरे जो पा गया।


खैर घूम फ़िर के हम अपने एक अजीज मित्र के पास पहुंचे, अपना दुख बताया। वे ठठाकर हंसते हुये बोले -"यार दवे जी नाहक परेशान मत हो, कसाब जन्नत पहुंच भी जाये, हूरें मिल जाये तो भी टेंशन नही। देखो अगर नाक न हो तो सेंट किस काम का। वैसे ही सामान विशेष न हो तो हूंर किस काम की।" यह बात सुनते ही हमारी बांछे खिल गयी। वाह ये त हमारे भेजे में आया ही नही था अगर पा भी गया होगा तो भी पछताता रहेगा - हाय मै फ़ोकट आतंकवादी बन गया।"

Tuesday, November 20, 2012

मी बाल ठाकरे बोलतो


बाला साहेब ठाकरे को उनके जाने के बाद भी लोग अलग अलग कारणो से याद कर रहे हैं। विरोधी उनकी शव यात्रा में उमड़ी भीड़ का उचित संबंध नफ़रत की राजनीती से जोड़ रहे हैं। आम भारतीय एक ऐसे आदमी की शव यात्रा में उमड़े लाखों लोगो को देखकर अचंभित था। समर्थक तो उनसे अथाह स्नेह करते ही थे। हालांकि इन सभी में बाल ठाकरे को पहचानने वाला कोई नही था। बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट थे, एक कार्टूनिस्ट या व्यंग्यकार वही हो सकता है जिसका राजनैतिक आकलन बहुत तगड़ा हो, जो निर्भीक हो और जो अंदर से कम्यूनिस्ट हो। जिसमे विरोधाभास को पहचानने और व्यक्त करने की जबरदस्त क्षमता हो। बाला साहेब  माओ, लेनिन की किताब पकड़े घूमते कम्यूनिस्टो से भी ज्यादा कम्यूनिस्ट थे। यह विरासत उन्हे अपने पिता से मिली थी। वे कामरेड डांगे को शिवसैनिको को भाषण देने और समाजशास्त्र का पाठ पढ़ाने बुलाते थे। बाला साहेब ने कम्युनिस्ट विचारधारा को मुंबई की परिस्थितियो के हिसाब से अपनाया। और मजे की बात सारे कम्युनिस्ट मजदूर संगठनो को मुंबई से बाहर कर दिया। जब कलकत्ता में एक के बाद एक फ़ैक्ट्री बंद कराने में कम्युनिस्ट लगे थे। तब बाला साहेब के संरक्षण मे मुंबई तेजी से औद्योगिक विकास कर रही थी। वह भी लेबर डिस्प्यूट के बिना, मजदूरों के हितो का ध्यान रखते हुये।

 मराठीवाद,गैरमराठियो का विरोध बाला साहेब का प्रमुख मुद्दा था।   दरअसल किसी भी महानगर में प्रवासियो के बड़ी संख्या में आने से स्थानीय लोगो के हितों का नुकसान होता है। प्रवासी चूंकि पिछड़े इलाको से आते हैं,  वे कम दर पर मजदूरी जैसे काम करने को तैयार हो जाते है। साथ ही परिवार के साथ रहते लोगो की अपेक्षा, अकेले रहते प्रवासी आसानी से अपराध में शामिल हो जाते है। ऐसे में प्रवासियो से किसी भी महानगर का राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है। राष्ट्रीय दल इस मुद्दे को उठा नही सकती सो स्थानीय दलो को इससे जनाधार बढ़ाने का मौका मिल जाता है। करांची में तो भाषाई आधार पर बने राजनैतिक दलो नें हथियार बंद दस्ते बनाये हुये हैं। जहां दर रोज आपसी झगड़ो में दस से ज्यादा आदमी मारे जाते हैं। इसके मुकाबले मुंबई मे स्थायी तौर पर रहने वाले प्रवासियों को किसी बड़े भेदभाव का अमूमन सामना करना नहीं पड़ता। और बाला साहेब ने विरोध का अत्यधिक मुखर तरीका प्रयोग जरूर अपनाया। लेकिन पिछले चार दशको मे कभी आपसी तनाव भी नही पनपने दिया, करांची के सामने तो मुंबई प्रवासियों का स्वर्ग है।

बाला साहेब पर मुसलमान विरोधी होने और उग्र बयान देने का भी आरोप लगता रहा है और वे देते भी रहे हैं। लेकिन 1992 के दंगो के अलावा उन्होने बंबई में कभी दंगा होने भी नही दिया। मुंबई दंगो के वक्त बाबरी मस्जिद कांड के बाद मुंबई के कतिपय मुल्लाओं ने कट्टरपंथी भावनाओ को बहुत भड़का दिया था। इस्लाम खतरे में है के नारे के साथ उग्र युवाओ के बड़े दल हिंसक वारदाते कर रहे थे। पंदरह दिनो तक वहा हिंदुओ पर लगातार हमले होते रहे और उसके बाद बाला साहेब ने शिवसैनिको को जवाबी कार्यवाही के लिये कहा। उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। मुस्लिम युवाओं को भड़काने वालो का कुछ नही बिगड़ा। मासूम बेगुनाह हिंदु और मुसलमान मारे गये।  यह बात भी कम लोगो को ही पता होगी कि उस दंगे को रोका भी बाला साहेब ने था। शिवसैनिको की कार्यवाही शुरू होने के तीसरे दिन ही बाला साहेब को यह अहसास हो गया था कि बेगुनाह मुसलमान मारे जा रहे है। फ़िर भी दंगा रोकते रोकते हफ़्ता गुजर गया अपराधिक तत्वो ने बेतरह लूट मार मचाई। विडंबना यह थी कि दंगा शुरू करने में प्रवासी मुसलमानो का उपयोग किया गया और लूट मार में शामिल ज्यादातर प्रवासी हिंदु ही थे। उस दंगे के बाद दो दशक से उपर बीत गये बाला साहेब ने मुंबई में दूसरा दंगा होने नही दिया। कितने बम धमाके हुये, आतंकवादी हमला भी हुआ।  भारत में दंगे करवा कर सत्ता चाहने वाले भगवा दल और मुस्लिम परस्त राष्ट्रीय क्षेत्रीय दलो की लिस्ट सभी को पता है।  लेकिन बाला साहेब एक ऐसे शख्स थे जिसके इशारे भर से दंगा हो सकता था। रतन टाटा ने शोक संदेश में कहा "भले वो विवादास्पद बयान देते थे लेकिन उन्होने अपने सिद्धांतो से कभी समझौता नही किया। "

वे बयान तो खतरनाक देते थे उसमें कोई शक नही। बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिये कई लोग सुबह शाम स्कीम बनाते रहे। भारत भर में रथ घुमाया, ईंट और चंदा लिया आखिर जब कामयाब हो गये तो इतिहास का काला दिन बता दिता। बाला साहेब ने कुछ नही किया, सिर्फ़ कहा "मेरे आदमी थे।" और करोड़ो ऐसे आदमियो का समर्थन प्राप्त कर लिया जिन्हे "सौगंध राम की खाते है" का नारा लगा लगा कर भाई लोगो ने उकसा दिया था। वे बेचारे क्या जानते थे कि अगली लाईन "चंदा हम खायेंगे" होगी। खैर हजारो बातें ऐसी है कि बाला साहेब पर मोहित हुआ जा सकता है या क्रोधित। लेकिन वे ऐसे आदमी तो थे ही जो अपने बयानों और विचारधारा पर अंत तक कायम रहे। यहां तो सुबह गड़करी को क्लीन चिट देकर शाम को "हमारा लेना देना नही है" का बोर्ड लगाने वाले लोग भी है। और जब जाकिर नाईक इस देश में अपने महाविचार बांटते इस्लाम की तथाकथित सेवा करते घूम सकते है। तो बाला साहेब को भी थोड़ा डिस्काउंट दिया ही जा सकता है। आखिर वोट बैंक की राजनीति ही तो इस देश का मूलमंत्र है। और बाला साहेब ही एक ऐसे नेता थे जो राजनितिक चालो और बयानो मे असमानता नही रखते थे

Friday, November 9, 2012

राम नाम सत्य है- जेठमलानी


सुबह सुबह हमारे पड़ोसी चिंताराम जी चिंतित अवस्था में हमारे पास आए- 'दवे जी देखिए, क्या गड़बड़ सड़बड़ हो रहा है। जेठमलानी कहता है कि राम बुरे पति थे। नराधम, खुद का नाम है राम और भगवान को बुरा कहते हैं।' हमने कहा- 'छोड़ो चिंताराम जी जब से दुनिया बनी है, पतियों को बुरा ही बताया जाता है।  जिसकी बीवी से पूछो वही कहेगी, पता नहीं कहां फंस गई। अब इससे बेचारे भगवान भी कहां अछूते रहते।' चिंताराम जी बोले- 'वाह, क्या दुनिया का हर मर्द खराब होता है।' हमने कहा- 'नहीं भाई, दुनिया का केवल हर पति खराब होता है। बाकि तो किसी भी महिला से पूछो उसका भाई कैसा है? तो फट से कहेगी, लाखों में एक। पूछो आपके पिताजी कैसे हैं, तो आंख मे आंसू आ जाएंगे टप-टप करती बोलेगी, उनकी बहुत याद आ रही है मायके जाना है।'

चिंताराम जी मुस्कुराए लेकिन उनकी चिंता कम नही हुई बोले- 'दवे जी लेकिन यह तो हमारे भगवान का अपमान हुआ। संघ, बीजेपी भी चुप है। भगाते काहे नहीं इसको।' हमने कहा -'भगवान का अपमान अगर उसके धर्म को मानने वाला ही करे तो केस नहीं बनता है। हां, कोई मुस्लमान ऐसा कहता तो भिड़ जाते अपने संघी लोग। अब देखो पाकिस्तान में कोई गैर मुस्लिम कुरान का अपमान करदे तो उसकी सजा मौत है, पर कोई मुसलमान करे तो उस पर ईश निंदा का कानून लागू नहीं होता।'

चिंताराम अभी भी चिंतित थे- 'दवे जी बात को मत घुमाओ। ऐसा होता तो काहे प्रवीन तोगड़िया और संघ के बाकि नेता राम जेठमलानी के खिलाफ बयान दे रहे हैं।' हमने कहा, 'अरे भाई ये लोग रामानन्द हैं। राम मंदिर के नाम से खूब माल कमाए हैं। अब राम पर कुछ भी कोई कहे तो कलपेंगे नेई! आदमी जिसका खाता है उसी का गाता है। सीता मंदिर के नाम से चंदा पाए रहते तो समझते कि जेठमलानी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं कि उनकी सीता माता को बिना अपराध इतना कष्ट सहना पड़ा। अब जो सीता जी की पीड़ा समझेगा वह तो राम जी से थोड़ा गुस्सा हो जाएगा कि नहीं। वह तो रामायण में भी लिखा है कि अयोध्या के सारे लोग बहुत रोए थे उस समय।'

चिंताराम जी के भेजे में बात घुसी लेकिन अब उन्हें राजनैतिक चिंता ने घेर लिया बोले- 'दवे जी यह तो सोचो कि बीजेपी की छवि कितनी खराब हो रही है। आखिर मतदाता तो इतना सब नहीं समझता ना।' हमने कहा- 'चिंताराम जी, मामला बहुत टेढ़ा है। जेठमलानी को निकाला तो सारा महिला वोट कट जाएगा। आखिर हर महिला यही सोचती है न कि निर्दोष सीता माता को निकालकर भगवान ने सही नहीं किया था। ऐसे मे जेठमलानी को निकाला तो सब गड़बड़ा जाएगा भाई।' चिंताराम जी को चिंतित होने की पुरानी बीमारी थी। उनकी चिंता कम न हुई- 'जरूर किसी सेकुलर ताकत का हाथ है इस विवाद को पैदा करने में।' हमने कहा- 'गुरु चिंताराम जी अब भाजपाई जेठमलानी राम को बुरे बता रहे हैं और भाजपाई ही कोस रहे हैं। और आप लाते हो बेचारे सेकुलरो को बीच में। आज तो सारे सेकुलर, चाहे वो कांग्रेसी हो या ललुआ यादव, ऐसे रामभक्त बन रहे हैं कि जाने माने सुप्रीम कोर्ट ने रामलला का दावा खारिज कर दिया तो खुद ही मंदिर बनाने पहुंच जाएंगे।'

चिंताराम जी बोले- 'यार दवे जी दाएं-बाएं बात मत घुमाओ। हमको इस जेठमलानी की बलि चाहिए बीजेपी में वो रहेगा या हम।' हमने कहा- 'पगला गए हो क्या? चिंताराम जी, अरे काहे अंदर का बात नहीं समझते। जेठमलानी बड़े रामभक्त आदमी हैं भाई। देखो सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है राम अयोध्या के मंदिर में पैदा हुए थे कि नहीं। वक्फ़ बोर्ड लगा है कि साहब राम जी तो एक मिथक हैं, वास्तव में हुए ही नहीं थे। चतुर श्रद्धेय जेठमलानी जी ने सारा तर्क खत्म कर दिया। अब देखा कांग्रेस एसपी सारे कह रहे हैं कि राम हमारे भगवान हैं। उनके बारे में बुरा-भला मत कहो जी जेठमलानी। अब सारा बात इस पर आकर टिक गया है कि वे अच्छे पति थे या बुरे पति। बीबीसी सीएनएन तक में आ गया है। पोप ने भी कहा है कि राम ने राजधर्म के खातिर छोड़ा था उन्हें बुरा पति करार नहीं दिया जा सकता। अब देखो बुरे पति थे या अच्छे पति थे। थे यह बात तो पक्की हो गई न। अरे तोगड़ियाओं के चक्कर में मत रहा करो। चिंताराम जी, चंदा लेकर खाली बयान ठोकते रहते हैं। अपने सच्चे रामभक्त तो राम जेठमलानी ही निकले। बिना फीस लिए एक ही बार में सारा मामला निपटा दिए हैं।'

इतना सुनते ही चिंताराम जी की सारी चिंताएं दूर हो गईं। हमसे विदा लेकर निकले तो गली के मोड़ तक राम जेठमलानी जिंदाबाद का नारा लगा रहे थे। हमने भी चैन की सांस ली। बिना उन पर कोई नई चिंता सवार हुए हमारे सिर पर सवार होने तो नहीं आएंगे।

Tuesday, November 6, 2012

मोहन भागवत से अच्छी सोनिया गांधी


एक व्यक्ति के तौर पर मोहन भागवत सोनिया गांधी से कई गुना उंचे पायदान पर है। उन्होने सर्वस्व त्याग जीवन देश की सेवा में लगा दिया।  अपनी काबिलियत के बल पर आज वे आरएसएस के प्रमुख है। वही दूसरी ओर काबिलियत और सर्वस्व त्याग के बिना अपने मुकाम पर पहुंची सोनिया के खाते मे भी कुछ उपलब्धिया जरूर है। पति से विरासत मे मिलें देश के शीर्षस्थ राजनैतिक दल को न केवल उन्होने पुनः अपने पैर पर खड़ा किया बल्कि आठ वर्षो से उस दल को सत्ता की शीर्ष पर बनाये वे अपने बच्चो के लिये उनकी विरासत को बरकरार रखने मे सफ़ल रही हैं।  यह अंतर वास्तव में चकित करने लायक है। एक ओर मोहन भागवत है जिन्होने जीवन के लिये अतिआवश्यक वस्तुओ के अलावा कभी अपने उपर धेला खर्च नही किया। वही सोनिया तमाम सुख सुविधाओ को भोगते हुये राजपाट का आनंद ले रही है। लेकिन दोनो की जो कार्यशैली में फ़र्क है। सोनिया कांग्रेस का चेहरा है तो भागवत भाजपा का दिमाग है। जाहिर है दोनो ही निर्णय अकेले नही लेते। दोनो के पास एक किचन कैबिनेट है जिनके द्वारा हर विषय पर निर्णय लिये जाते है।

और फ़र्क यही आता भी है। सोनिया गांधी के सलाहकार पूर्णतः राजनैतिक लोग है। भागवत के सलाहकार गैरराजनैतिक पृष्ठभूमी के है ।  लेकिन इतने से ही कोई आधारभूत अंतर नही आ जाता है। कोई भी राजनैतिक व्यक्ति या समूह सतत सीखता, अपनी गलतियों से सबक लेता, और अपने निर्णयो के गलत साबित होने पर जनता के क्रोध और तटस्थ आलोचको की आलोचना का शिकार होता रहता है। यही तटस्थ आलोचना आगे होने वाले निर्णयो का आधार भी बनती है।  लेकिन संघ खुद को किसी भी आलोचना से परे रखता है। वह भाजपा से गुप्त दान लेता है, निर्देश देता है और निर्णय गलत होने के बाद  भाजपा का अंदरूनी मामला है का बोर्ड लगा कर कट लेता है।  देश की सामने आती हर राजनैतिक समस्या चुनौती या नीति पर संघ का संघ के तौर पर कभी कोई विचार सामने नही आता। भाजपा के सभी विषयों पर नीतिगत स्टैंड संघ ही तय करता है पर जनता के सामने यह भाजपा के स्टैंड के रूप मे ही सामने आता है।

सोनिया गांधी और भागवत दोनो अपने संगठन (कांग्रेस और भाजपा) के किसी नेता की हैसियत बड़ी होने देना पसंद नही करते।  हालांकि कारण दोनो के अलग है। कांग्रेस को स्वभाविक तौर पर गांधी परिवार के अलावा किसी और का ताकतवर होना मंजूर नही। इसके उलट संघ भाजपा के लोकप्रिय नेता और कार्यकर्ता  और समर्थकों के प्रिय नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाना चाहते। कारण बहुत साफ़ है आज मोदी की छवि भाजपा और संघ से बहुत बड़ी हो चुकी है। और प्रधानमंत्री बन जाने के बाद जैसी उनकी कार्यशैली है, वे अकुशल या भ्रष्ट लोगो को बर्दाश्त नहीं करते। इसके अलावा भी गुजरात दंगो के दौरान संघ विहिप और बजरंग दल के लोगो की कारगुजारियो का पूरा दाग उनके ही दामन पर पड़ा था। आज दस सालो बाद भी वे उस कलंक को पूरी तरह धो नही पाये। अब नरेन्द्र मोदी किसी भी प्रकार का कट्टरपंथ अपने राज्य में बर्दाश्त नही करते। प्रधानमंत्री बन जाने के बाद तो वे जिस तरह से राष्ट्र को चलायेंगे वह संघ को किसी कीमत पर मंजूर नही होगा। 

 हालांकि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना संघ का अपना निर्णय है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से संघ भाजपा राज्यो और दल में छाये भ्रष्टाचार पर कोई स्टैंड नही रखता। भविष्य में चरित्र    िर्माण की दलील आज कोई भी स्वीकार करने को तैयार नही है। निश्चित तौर पर कॊई भी भाजपा समर्थक  इस दिशा में कठोर कदम उठाने की अपेक्षा रखता है। पर भाजपा और उसके नेता तो अपने स्तर पर मुख्यमंत्रियो या मंत्रियो पर किसी प्रकार की नकेल कसने की स्थिती में हैं ही नही। और मोहन भागवत जो उसे नियंत्रित कर रहे है वे किसी भी सूरत मे असफ़लताओ की जिम्मेदारी लेने वाले नही है। वे बंद कमरे मे बैठ कर चीजें तय करते है। परिणाम आने पर पल्ला झाड़ लेते है और भाजपा से वह सारे काम करवा रहे है जो इस भ्रष्टाचार विरूद्ध आंदोलन मे उसकी छवि को कुंद कर रहा है। कल तक कांग्रेस के हर आरोपित मंत्री से पूरी सरकार से आरोप लगने पर नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा मांगने वाले भाजपाई नेता, अब किस मुंह से जनता और कांग्रेस के सवालो का सामना करेंगे। जब वे खुद अपने अध्यक्ष को आरोप साबित होने के बाद इस्तीफ़ा देने की बात कर रहे हैं। जिस संघ के गुरूमूर्ती द्वारा जांच मे क्लीन चिट का वे दावा कर रहे है क्या वह जांच रिपोर्ट दस्तावेजो के साथ जनता के सामने आना नही चाहिये था ? आज जो दल पहले ही 20 % अल्पसंख्यको का वोट नही पाता किस आधार पर केजरीवाल की आंधी का सामना करेगा।

इस मामले में तो सोनिया गांधी मोहन भागवत से लाख गुना बेहतर हैं। वे और उनका अमूल बेबी अपनी कारकर्तगी के परिणामों और जनता के क्रोध का सामना कर रही हैं। और आलोचनाओ की आंधी के बीच अपनी सरकार और संगठन में फ़ेर बदल कर रही हैं। और चुनाव आते तक वे निश्चित रूप से भाजपा से बेहतर तैयारी कर चुकी होंगी। आखिर वे सत्ता मे है और जनता को लोकलुभावन नीतियो का लालीपाप थमा सकती हैं।

इसके विपरीत मोहन भागवत आठ सालों में भाजपा को  इस स्थिती में लाने के बावजूद श्रद्धेय बने हुये है। अपने द्वारा भाजपा पर थोपे गये अपरिपक्व अध्यक्ष और उनकी व्यवसायिक कारगुजारियो का परिणाम भाजपा पर डाल रहे हैं। और उस पर दबाव भी बनाये हुये है कि उसे अध्यक्ष बने रहने दिया जाये। ऐसे मे मुझे कोई हिचक नही है कि सोनिया गांधी और मोहन भागवत का आई क्यू भले एक समान है। पर सोनिया उसका इस्तेमाल कांग्रेस को मुश्किलो से उभारने में कर रही है, और भागवत भाजपा को बरबाद करने में। आखिर गोलवलकर  गुरूजी का प्रसिद्ध वकतव्य आज भी प्रासंगिक है - "जनसंघ गाजर की पुंगी है जब तक बजेगी ठीक नही तो खा जायेंगे।" लेकिन आज भाजपा देश के सामने वह विकल्प है जिसका व्यापक संगठन है। केजरीवाल के अब तक कोई ठोस ढांचा नजर नही आता। ऐसे में क्या देश भाजपा का "गाजर की पुंगी" बने रहना बर्दाश्त कर सकता है ?