देखिये साहब कसाब दीन की राह में शहीद हो खुदा से हूरों को पाने के बिजनेस के सिलसिले में अवैध तरीके से भारत आया था। कितने लोग मरें इसका कोई एग्रीमेंट नहीं था, जितने मार सको उतने मारो। किनारे उतरते ही मरता, कश्ती पलटने से मरता तो भी डील कायम रहती। सो पकड़ा जाने से भी उसके इस एग्रीमेंट में कोई फ़र्क पड़ने वाला नही था। सौदा तभी टूटता जब वो बुढ़ापे में अपनी मौत मरता। प्रधानमम्मी सोनिया ने सब गुड़ गोबर कर दिया, अपनी इमेज के लिये उसको शहीद बना दिया। अपना दुख भाजपाई मित्र पर जाहिर किया तो वे भड़क गये- "पहले तो जान लो दवे जी, कसाब फ़ांसी से नही डेंगू से मरा है। मच्छर भी कांग्रेसियों से देशभक्त निकले ये तो बिरयानी खिला रहे थे।" उनको बताया कि भाई फ़ांसी का वीडियो शूटिंग हुआ है, अब तक जन्नत में हूरों की डिलेवरी भी ले चुका होगा।" तो कहते है- "पहले दिन ही लटका देना था चौराहे में। कोई हूर-वूर, सब बकवास बात है।" हमने उनसे स्वर्ग और अप्सरा वाला मामला नही पूछा। फ़ोकट देशद्रोही सेकुलर का लेबल मिल जाता।
खैर मुस्लिम मित्र से पूछा तो बोले -" इस्लाम में निर्दोष की, महिलाओं, बच्चो की जान लेने पर दोजख जाना पड़ता है।" हम कहें कि - "देखो मियां, बेचारे कसाब को तो पता नही था ना ये। बाद में कितना पछताया। वह तो बेचारा सच्चे दिल से खुदा की राह पर चलना चाहता था। दोजख तो उस मौलवी और हाफ़िज सईद को मिलेगी जिन्होने इसे बरगलाया था।" तो जवाब मिलता है कि मूर्खो को जन्नत नसीब नही होती। बुरे काम का बुरा नतीजा ही निकलता है।"
वैसे देश में कसाब की फ़ांसी पर और तरह तरह की प्रतिक्रियाएं भी आ रहीं है। एक सुशील झा लिखते है- "किसी ने ट्विटर पर लिखा कि सोचिए बीस साल के बाद कसाब यरवदा जेल में सूत कात रहा होता और उस सूत से बना कुर्ता पाकिस्तान के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को भेंट किया गया होता। सोचिए कि कसाब टीवी चैनलों पर सूत कातते हुए कहता कि मैं आज भी पश्चाताप कर रहा हूं अल्लाह मुझे माफ करें।....... सोचिए वो कितनी बड़ी नैतिक जीत होती भारतीय मूल्यों की पूरी दुनिया में."
यह पढ़ते ही कानो में "रघुपति राघव" भजन बजने लगा। अहिंसा, शांती, प्रेम, दया...... आहाहाहा नारायण नारायण। ऐसे उत्तम लोग आजकल मिलते ही कहा है। और अपना पड़ोसी पाकिस्तान तो अति उत्तम है। वो कितनो को सूत कातने भेजेगा पता नहीं। कसाब की बुनी खादी का कुर्ता पहने जनता के हितैषी नेता बड़े सेक्सी भी नजर आयेंगे। आखिर जो देश कसाब पर दया कर सकता है वो अपनी जनता पर भी एक न एक दिन दया करेगा न भाई। खैर बात वैसे बुरी नही आंख के बदले आंख वाली कबीलाई संस्कृती से उपर उठना भी चाहिये ही। लेकिन इस उत्तम विचार को ट्वीटर पर चपकाने वाले महात्मा ने शायद इस बारे मे विचार नही किया होगा कि भारत की गरीब जनता के पास खुद खाने को कुछ नही। दिल्ली के प्रेस क्लब मे हाफ़ रेट की महंगी व्हिस् ी पीने और मुर्गा चबाने के बाद दयालु हुआ जा सकता है। पर सूखी रोटी चबाने वाले के मोबाईल मे "यह सुविधा आपको उपलब्ध नही है" का रिंग टोन बजने लगता है।
कई भाई जनता के सामने उन्माद परोसने की रोमन ग्लैडियेटरी संस्कृती का भी हवाला दे रहे है। तो एक सज्जन भारत फ़ांसी पाये लोगो मे नब्बे प्रतिश्त आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक होने का दावा कर रहे थे। एक दूसरे सज्जन जार्ज ओरवेल के हाथी के शिकार और कसाब की फ़ांसी में उचित संबंध जोड़ रहे थे। हाथी ने "मस्त" की अवस्था में तोड़ फ़ोड़ की, आदमी को मारा था। कसाब ने "गुमराह" की अवस्था में यह किया था। दोनो बुरी हरकतो के बाद शांत हो गये थे। सज्जन के हिसाब से उन दोनो को मारे जाने का कोई औचित्य नही था।" दोनो को तमाशबीन जनता के दबाव में मार दिया गया था। हमने सोचा- ’अपना कसाब तो माफ़ी भी मांग रहा था, हाथी ने तो माफ़ी भी नही मांगी थी। उसको तो और नही मारना था।" खैर वो सज्जन मिलें तो हम पूछे- " भाई हाथी तो "मस्त" की अवस्था खत्म होने के बाद काम का, लाखों रूपये का था। कसाब तो "गुमराह" की अवस्था खत्म होने के बाद लाखो रूपया रोज खर्च करवा रहा था, दोनो में तुलना कैसी? लेकिन इसके बाद भी हम सहमत हैं कि कसाब और हाथी दोनो को मारना नही था। आखिर साले की डील पूरी हो गयी हूरे जो पा गया।
खैर घूम फ़िर के हम अपने एक अजीज मित्र के पास पहुंचे, अपना दुख बताया। वे ठठाकर हंसते हुये बोले -"यार दवे जी नाहक परेशान मत हो, कसाब जन्नत पहुंच भी जाये, हूरें मिल जाये तो भी टेंशन नही। देखो अगर नाक न हो तो सेंट किस काम का। वैसे ही सामान विशेष न हो तो हूंर किस काम की।" यह बात सुनते ही हमारी बांछे खिल गयी। वाह ये त हमारे भेजे में आया ही नही था अगर पा भी गया होगा तो भी पछताता रहेगा - हाय मै फ़ोकट आतंकवादी बन गया।"
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