Tuesday, November 6, 2012

मोहन भागवत से अच्छी सोनिया गांधी


एक व्यक्ति के तौर पर मोहन भागवत सोनिया गांधी से कई गुना उंचे पायदान पर है। उन्होने सर्वस्व त्याग जीवन देश की सेवा में लगा दिया।  अपनी काबिलियत के बल पर आज वे आरएसएस के प्रमुख है। वही दूसरी ओर काबिलियत और सर्वस्व त्याग के बिना अपने मुकाम पर पहुंची सोनिया के खाते मे भी कुछ उपलब्धिया जरूर है। पति से विरासत मे मिलें देश के शीर्षस्थ राजनैतिक दल को न केवल उन्होने पुनः अपने पैर पर खड़ा किया बल्कि आठ वर्षो से उस दल को सत्ता की शीर्ष पर बनाये वे अपने बच्चो के लिये उनकी विरासत को बरकरार रखने मे सफ़ल रही हैं।  यह अंतर वास्तव में चकित करने लायक है। एक ओर मोहन भागवत है जिन्होने जीवन के लिये अतिआवश्यक वस्तुओ के अलावा कभी अपने उपर धेला खर्च नही किया। वही सोनिया तमाम सुख सुविधाओ को भोगते हुये राजपाट का आनंद ले रही है। लेकिन दोनो की जो कार्यशैली में फ़र्क है। सोनिया कांग्रेस का चेहरा है तो भागवत भाजपा का दिमाग है। जाहिर है दोनो ही निर्णय अकेले नही लेते। दोनो के पास एक किचन कैबिनेट है जिनके द्वारा हर विषय पर निर्णय लिये जाते है।

और फ़र्क यही आता भी है। सोनिया गांधी के सलाहकार पूर्णतः राजनैतिक लोग है। भागवत के सलाहकार गैरराजनैतिक पृष्ठभूमी के है ।  लेकिन इतने से ही कोई आधारभूत अंतर नही आ जाता है। कोई भी राजनैतिक व्यक्ति या समूह सतत सीखता, अपनी गलतियों से सबक लेता, और अपने निर्णयो के गलत साबित होने पर जनता के क्रोध और तटस्थ आलोचको की आलोचना का शिकार होता रहता है। यही तटस्थ आलोचना आगे होने वाले निर्णयो का आधार भी बनती है।  लेकिन संघ खुद को किसी भी आलोचना से परे रखता है। वह भाजपा से गुप्त दान लेता है, निर्देश देता है और निर्णय गलत होने के बाद  भाजपा का अंदरूनी मामला है का बोर्ड लगा कर कट लेता है।  देश की सामने आती हर राजनैतिक समस्या चुनौती या नीति पर संघ का संघ के तौर पर कभी कोई विचार सामने नही आता। भाजपा के सभी विषयों पर नीतिगत स्टैंड संघ ही तय करता है पर जनता के सामने यह भाजपा के स्टैंड के रूप मे ही सामने आता है।

सोनिया गांधी और भागवत दोनो अपने संगठन (कांग्रेस और भाजपा) के किसी नेता की हैसियत बड़ी होने देना पसंद नही करते।  हालांकि कारण दोनो के अलग है। कांग्रेस को स्वभाविक तौर पर गांधी परिवार के अलावा किसी और का ताकतवर होना मंजूर नही। इसके उलट संघ भाजपा के लोकप्रिय नेता और कार्यकर्ता  और समर्थकों के प्रिय नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाना चाहते। कारण बहुत साफ़ है आज मोदी की छवि भाजपा और संघ से बहुत बड़ी हो चुकी है। और प्रधानमंत्री बन जाने के बाद जैसी उनकी कार्यशैली है, वे अकुशल या भ्रष्ट लोगो को बर्दाश्त नहीं करते। इसके अलावा भी गुजरात दंगो के दौरान संघ विहिप और बजरंग दल के लोगो की कारगुजारियो का पूरा दाग उनके ही दामन पर पड़ा था। आज दस सालो बाद भी वे उस कलंक को पूरी तरह धो नही पाये। अब नरेन्द्र मोदी किसी भी प्रकार का कट्टरपंथ अपने राज्य में बर्दाश्त नही करते। प्रधानमंत्री बन जाने के बाद तो वे जिस तरह से राष्ट्र को चलायेंगे वह संघ को किसी कीमत पर मंजूर नही होगा। 

 हालांकि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना संघ का अपना निर्णय है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से संघ भाजपा राज्यो और दल में छाये भ्रष्टाचार पर कोई स्टैंड नही रखता। भविष्य में चरित्र    िर्माण की दलील आज कोई भी स्वीकार करने को तैयार नही है। निश्चित तौर पर कॊई भी भाजपा समर्थक  इस दिशा में कठोर कदम उठाने की अपेक्षा रखता है। पर भाजपा और उसके नेता तो अपने स्तर पर मुख्यमंत्रियो या मंत्रियो पर किसी प्रकार की नकेल कसने की स्थिती में हैं ही नही। और मोहन भागवत जो उसे नियंत्रित कर रहे है वे किसी भी सूरत मे असफ़लताओ की जिम्मेदारी लेने वाले नही है। वे बंद कमरे मे बैठ कर चीजें तय करते है। परिणाम आने पर पल्ला झाड़ लेते है और भाजपा से वह सारे काम करवा रहे है जो इस भ्रष्टाचार विरूद्ध आंदोलन मे उसकी छवि को कुंद कर रहा है। कल तक कांग्रेस के हर आरोपित मंत्री से पूरी सरकार से आरोप लगने पर नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा मांगने वाले भाजपाई नेता, अब किस मुंह से जनता और कांग्रेस के सवालो का सामना करेंगे। जब वे खुद अपने अध्यक्ष को आरोप साबित होने के बाद इस्तीफ़ा देने की बात कर रहे हैं। जिस संघ के गुरूमूर्ती द्वारा जांच मे क्लीन चिट का वे दावा कर रहे है क्या वह जांच रिपोर्ट दस्तावेजो के साथ जनता के सामने आना नही चाहिये था ? आज जो दल पहले ही 20 % अल्पसंख्यको का वोट नही पाता किस आधार पर केजरीवाल की आंधी का सामना करेगा।

इस मामले में तो सोनिया गांधी मोहन भागवत से लाख गुना बेहतर हैं। वे और उनका अमूल बेबी अपनी कारकर्तगी के परिणामों और जनता के क्रोध का सामना कर रही हैं। और आलोचनाओ की आंधी के बीच अपनी सरकार और संगठन में फ़ेर बदल कर रही हैं। और चुनाव आते तक वे निश्चित रूप से भाजपा से बेहतर तैयारी कर चुकी होंगी। आखिर वे सत्ता मे है और जनता को लोकलुभावन नीतियो का लालीपाप थमा सकती हैं।

इसके विपरीत मोहन भागवत आठ सालों में भाजपा को  इस स्थिती में लाने के बावजूद श्रद्धेय बने हुये है। अपने द्वारा भाजपा पर थोपे गये अपरिपक्व अध्यक्ष और उनकी व्यवसायिक कारगुजारियो का परिणाम भाजपा पर डाल रहे हैं। और उस पर दबाव भी बनाये हुये है कि उसे अध्यक्ष बने रहने दिया जाये। ऐसे मे मुझे कोई हिचक नही है कि सोनिया गांधी और मोहन भागवत का आई क्यू भले एक समान है। पर सोनिया उसका इस्तेमाल कांग्रेस को मुश्किलो से उभारने में कर रही है, और भागवत भाजपा को बरबाद करने में। आखिर गोलवलकर  गुरूजी का प्रसिद्ध वकतव्य आज भी प्रासंगिक है - "जनसंघ गाजर की पुंगी है जब तक बजेगी ठीक नही तो खा जायेंगे।" लेकिन आज भाजपा देश के सामने वह विकल्प है जिसका व्यापक संगठन है। केजरीवाल के अब तक कोई ठोस ढांचा नजर नही आता। ऐसे में क्या देश भाजपा का "गाजर की पुंगी" बने रहना बर्दाश्त कर सकता है ?

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