देखिये साहब इस देश के तथाकथित रूप से सभ्य होते जाने का सबसे ज्यादा फ़र्क, हमारी भाषा पर ही पड़ा है। खास कर उन शब्दो के उपर जो कथित रूप से निम्न स्तर की क्रियाओं के लिये प्रयुक्त होते थे। हगना, पखाना आदि आदि इत्यादी शब्द अब लुप्त प्राय हो चुके है। मुझे याद है जब मै बड़ा हो रहा था, तब घर में शौचालय के लिये "पाकिस्तान" शब्द का प्रयोग होता था। खैर आज हगने का मामला सुर्खियों पर है। अपने प्रस्तावित सभ्य नाम - "बापू शौचालय" से। अब बापू के साथ शौचालय का नाम जुड़ने पर गोड़से वादी बहुत प्रसन्न होंगे। गांधीवादी दुखी भी हो सकते हैं, इसलिये हमने "गोड़से शौचालय" भी प्रस्तावित कर दिया है। देश में स्वच्छता के लिए महात्मा गांधी के अभियान का जिक्र करते हुए जयराम रमेश ने पर्यावरण मित्र टॉयलेट का नाम ‘बापू’ रखे जाने का सुझाव दिया है। उन्होंने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के पर्यावरण हितैषी शौचालय को लॉन्च करते हुए यह बात कही। वैसे नाम के सुझाव और भी है जैसे "ई-लू।" "लू" या "पाटी" कान्वेंट स्कूलो से हिंदी भाषी घरो में उतरा "हगने" का एक तथाकथित सभ्य नामातंरण है। वैसे तो बड़े बूढ़े कह गये है कि नाम मे क्या रखा है।
नाम से हट अब काम में आया जाये। आज हमारा योजना आयोग गरीबो के शौचालय के लिये बड़ा चिंतित है। आखिर "भारत स्वाभिमान" के चखने के साथ, विदेशी व्हिस्की पीते, बड़े अफ़सरो को विदेशी डिप्लोमेट खेत में हगते आदमी की याद दिला। भारत के अचीवमेंट को खारिज जो कर देते हैं। विदेशी दौरो में लाखो रूपये रोज के किराये वाले कमरे में बैठ कर हगते हुय, मोटेंक सिंग आहलूवालिया की आत्मा को कितना कष्ट होता होगा। कि उसका देशवासी "ईंटा"लियन टाईलेट में खुले आसमान के नीचे भीगता हुआ, ठंड से कांपते हुये हग रहा होंगा। जैसे गरीबो की भूख को याद कर कई पुण्यात्माओ के निवाला हलक के नीचे नही उतरता। ठीक वैसे ही जमीन मे बैठ हग रहे गरीबो को याद कर,गरीबनवाज अधिकारियो के भी कमर के नीचे मल नही उतरता होगा।
बात गंभीर है, जयराम रमेश अच्छे मंत्री है। लेकिन जब लक्ष्य ही दिशाहीन हो तो किस तरह देश का भला हो। पर्यावरण प्रिय बापू शौचालय के डिजाईन में करोड़ो खर्च किये। अब खरबो खर्च कर 49 कंपनियो को ठेका देकर शौचालय बनवाया जायेगा। उसको गरीब तक पहुंचाने में कितने अमीर हो जायेंगे, उसकी तो गिनती नही। सरकारी योजनाओ का हाल तो सभी को मालूम है। योजना आयोग के अत्याधुनिक शौचालय की सुरक्षा लिये भी कैमरा फ़िट करना पड़ता है। सो बापू शौचालयों की क्या गत होगी, जानना कठिन काम नही है।
अच्छा साहब तर्क तो देखिये- "बापू गांव को स्वच्छ रखना चाहते थे"। अरे भाई बापू का इतना मानते हो। तो गांव का पैसा गांव वालो को दो। वे अपनी जरूरत, अपनी प्राथमिकता खुद तय करें। अभी ही प्रदूषण रहित चूल्हा योजना में देश के खरबो रूपये स्वाहा हो रहे हैं। लेकिन दिल्ली के योजना आयोग के तीसरी मंजिल पर आलीशान बाथरूम में चैन से हगते लोगो को बड़ी चीजें ही सूझती हैं। जो जमीन मे बैठ के हगे, वही जमीन से जुड़ी समस्याओ पर चिंतन कर सकता है। किस गांव की क्या प्राथमिकताये है यह उन गांव वालो से बेहतर कौन तय कर सकता है। लेकिन समस्या ये है कि पैसा सीधे गांव वालो तक पहुंच जाये। तो बीच का बंदर खेलने वालो का क्या हो। जितने उंचे स्तर पर चीजो का निर्णय हो तो दलालो को उतनी आसानी। ग्राम स्वराज्य से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ताकत दे गरीब आत्मनिर्भर बनें। खुद तय करे कि उसे कहां हगना है। या बाबा रामदेव चार सौ लाख करोड़ कालाधन वापस ले आयें। फ़िर इतना पैसा हो जायेगा कि घर घर ऐसा शौचालय बन जाये कि मल से बिजली बना बाकी बची खाद को उसी बिजली से खेतो तक पंप कर दिया जाये।
यह बात बेहद गंभीर है, छोटी बात नही है। चैन से बंद कमरे में हगने की इच्छा ने ही दलित वर्ग पैदा किया। मनुवादी स्वर्ण अगर घर में हगने की राजसी प्रवुत्ती त्याग देते। तो आज दलित शिरोमणी बन अरबो फ़ूंकती बहनजी किसी खेत में लोटा लेकर बैठी होती। जब मल साफ़ ही न करना पड़ता तो दलित ही न होता। मल जनित बीमारियो के कारण ही छुआछूत की कुप्रथा शुरू हुई। छुआछूत ही न होती तो भारत कमजोर न होता। आश्चर्य की बात है कि मोहनजोदड़ो की खुदाई की सारी बाते सामने आयी। पर वहा के हग्गू खाने का कोई उल्लेख नही मिलता। क्या वे लोग इन सब मनुवादी प्रवुत्तियो से उपर थे। जहा तक मेरी जानकारी है लोथल आदि शहर बहुत विकसित थे। नाली और गटर की व्यवस्थायें पानी के बहाव पर आधारित थी। सो हमारे हिसाब से ये हगना गहन राष्ट्रीय शोध का विषय है। इस पर गंभीरता से काम होना चाहिये।
खैर इस व्यंग्य को दूर भी रखा जाये तो आज रासानियक खाद पर निर्भर खेत और फ़ंदे मे झूल आत्महत्या करता किसान इसी चीज का दंश भोग रहा है। खेत की उर्वरता को रिचार्ज करने का काम इंसानी और पशुओ का मल, पेड़ो से गिरी पत्तिया और इन पर निर्भर कृषी मित्र कीटो पर ही निर्भर था। इस कड़ी के टूटने से ही आज भारत का किसान उर्वरक और सबसीडी के लिये सरकार का मुंह ताकता है। खेत से सिर्फ़ लेने उसे चूसने की जिद और तथाकथित सभ्यता ने हमें जहर भरे भोजन का मोहताज बना दिया है। और ऐसी महान योजनाएं जिने देश के महान लोगो का नाम जोड़ श्रद्धेय बना दिया जाता है। चौतरफ़ा हमला है देश की दरकती अर्थवय्वस्था और सिसकते पर्यावरणतंत्र पर।
चलिये साहब मैने तो दिल की बात रख ही दी है। पर मुझे एक बात की पीड़ा साल रही है। इस देश के नाकारे टीवी के खोजू पत्रकार, जरा सुराग साजी कर यह पता लगाये। कि सोनिया गांधी, मनमोहन सिंग, लालकृष्ण आडवानी के घर के शौचालय कौन साफ़ करता है। उन सफ़ाई कर्मचारियों की जात से लेकर उनका दमकता चेहरा टीवी पर आ जाये, तो जरा दिल पर चैन पड़े। हम भी तो देखे कि दलितो से शौचालय साफ़ कराने वाले ऐसे महान अंबेडकर भक्त नेताओ के मुंह से क्या बोल फ़ूटते है। वैसे फ़िर तो शायद सारे अपना बाथरूम खुद साफ़ करने लगे। और देश की जनता को चैन मिले कि साले जिस लायक है उस काम को करने तो लगें।