साहब पिछले कुछ दिनो से देश में मातम छाया हुआ है, कि हाय महंगाई से जीना हराम हो गया है। सुबह कंपूटर बाबा को चपको नही कि स्क्रीन पर मनमोहन से लेकर अमूल बेबी तक को कोसते लोगो की रेलमपेल है। उसके बाद कोई सुकून का कोंटा तलाशो, तो दना दन मैसेज आने लगते हैं - " पेट्रोल महंगा हो गया" "फ़लां तेल कंपनी इतना प्राफ़िट छुपा रही है", "तेल इतने रूपये का आता है और साले टैक्स लगा के इतना मे बेच रहे हैं"। संघी लोग का तो और गजब है, वो हर चीज को हिंदुत्व पर छाये खतरे से जोड़ देते हैं। कब महंगाई को कोसना चालू करते है और कब इसाई सोनिया से लेकर मुस्लिम आतंक पर उतर आते है कोई पता नही चलता।
मुझे समझ नही आती कि इस देश को तकलीफ़ किस बात से है। मुझे तो यह महंगाई बेहद पवित्र नजर आती है। क्या खूब लिखा था किसी शायर ने के " सारे चिराग गुल कर दो कि आज अंधेरा बड़ा मुक्कदस है।" सो आज ये जो अंधेरा नजर आता है। बड़ा मुक्कदस है, क्योंकी ये जम्हूरी अंधेरा है। ऐसे ही ये महंगाई भी मुक्कदस है, क्योंकि ये जम्हूरी महंगाई है। इस दुर्गत के लिये हमने खुद दावत दी है। मजे की बात है कि लोकतांत्रिक दावत दी है। एक पौराणिक कहानी याद आ गयी कि जिसको पूरणमासी की रात में सांप ने डसा हो। वो हर पूरणमासी को सांप से फ़िर डस जाने का इंतजार करता है। ठीक वैसे ही हालत हम हिंदुस्तानियो की है। हर चुनावी पूरणमासी को हम इन सांपो से डसे जाने का इंतजार करते हैं।
अब आ जाईये इस क्रोधित आम आदमी पर। यह आम आदमी बोले तो भारतीय मध्यम वर्ग। वह वर्ग जो सिनेमा देखता है, अखबार पढ़ता है, सामान का खरीददार है। और जिसके मूड को भांप कर ही यह बाजार भी बदलता है। गिराहक आखिर हिंदुस्तान में पौराणिक काल से देवता माना जाता है नही। सो इस आम आदमी के क्रोधित होने से मीडिया भी क्रोधित है और सिनेमा भी। नेताओ से ज्यादा उसका क्रोध उन लोगो पर भी है। जिन्हे वो अमूमन तीन रूपये किलो वाला चांवल पाकर मुटियाने वाला और काम से नागा करने वाला कामचोर आलसी गंवार कहता है। आखिर इस गरीब वर्ग से उसका ताल्लुक इतना ही है न कि वो उसके घर मे काम करने वाली बाईयो या वो मजदूर जो उसके कारखाने, दुकान पर काम करता है। और यह गरीब कही से न्योता मिला नही कि चार दिन काम से गोल हो जाता है। इस आम आदमी की नजर में गरीबो को दिया जाने वाला चावल शराब की भेंट चढ़ जाता है। यह गरीब आदमी आम आदमी के क्रोध का शिकार इसलिये है कि उसके अनुसार ये साले दारू साड़ी लेकर इन चोर नेताओ को वोट देकर जिता देते हैं। आम आदमी अपनी बैठको में जब राजनैतिक चर्चा करता है तो इन गरीबो की वोटिंग को लेकर कसमसाता जरूर है।
लेकिन इस पवित्र महंगाई का कारण गरीब नही है। गरीब का तो पेट ही खाली है, वह कहा आंदोलन के महंगे शौक पाल सकता है। उसके आंदोलनो को टीवी पर दिखायेगा कौन। आंदोलन कर तो ये आम आदमी ही सकता है जिसका पेट भरा हुआ है। पर इनको महंगाई से ज्यादा चिंता अपना अपना वाद पेलने की है। और भ्रष्टाचार से लड़ने के बजाये अपनी दुश्मन नजर आने वाली पार्टी को ठेलने की है। सुबह से शाम हाय हाय मचाते इन आम आदमियों में से कोई भाजपाई है तो कोई कांग्रेस और कोई वामपंथी विचारधारा का है। व्यवस्था के खिलाफ़ उठते हर आंदोलन में यह आम आदमी अपने वाद के सुर खोजता है। कोई धर्म के कारण किसी वाद का समर्थक है। कोई विचारधारा के कारण। और कॊई कोई तो खानदानी विरासत मे पाये वाद को अपने बच्चो तक पहुंचाने को ही पूर्वजो का कर्ज चुकाने का माध्यम समझते हैं। और भारत मे ऐसे लोगो की भी कमी नही जो पैदाईशी विरोधी लाल होते हैं। सो हर उठने वाले आंदोलन की मौत भी तय ही है। बच वह तभी सकता है। जब उसके सीने में सवार कोई राजनैतिक दल हो। और ऐसा होने पर सवारी साधता राजनैतिक दल माल उड़ाने का उत्तम अवसर पा जाता है। और आम आदमी फ़िर से बेचारा महंगाई का शोक मनाता है।
तो साहब यह बेचारा आम आदमी....न तो श्रेष्ठी वर्ग की तरह संपन्न ..न ही गरीबों की तरह निर्द्वन्द ,,,इन दोनों के बीच पट में पिसने वाला यही आम आदमी है। .इसे समाज की दिशा भी बदलनी है..और अपनी गृहस्थी को भी सुचारू रखना है। उस पर ये लोकतान्त्रिक क्रोध और वर्तमान व्यवस्था के प्रति कसमसाहट । इस कसमसाहट को अभी एक उबाल का जरूरत है। शोषण की भट्टी में क्रोध का कोयला तपेगा। लेकिन यह तभी संभव होगा जब वह वाद के विवाद को धर्म के चश्मे को एक तरफ़ फ़ेंक सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यवस्था और लचर कानून के विरोध मे बिना किसी राजनैतिक दल के उठ खड़ा होगा। और तब ये २८ रूपये दिहाड़ी कमाने वाला गरीब शायद उस सोच को जी सके। जहाँ सिर्फ एक दिन की दारू,कपडा,चंद रूपये या खाना..उसको देश की दिशा तय करने में लोभ पैदा करके बाधा न बने। तो साहब महंगाई को कोसने वालो इंतज़ार करिए कि इस आम जन के लोकतान्त्रिक क्रोध की तपिश बढे ......और उबले एक नयी क्रांति के लिए।