Tuesday, April 26, 2011

अखबार के मालिक और मेरी भिड़ंत

शाम के वक्त एक साहित्य प्रेमी अमीर मित्र का फ़ोन आया। उनके फ़ार्म हाउस में वाईन एंड डाईन का न्योता था।  मुफ़्त में पैग लगाने की खुशी में हम दनदनाते पहुंच गये। वहां एक सज्जन और विराजमान थे। मित्र ने मेरा उनसे परिचय करवाया। वे मध्य भारत के सबसे बड़े अखबार के मालिक और संपादक थे। उन्होने ससम्मान मुझसे हाथ मिलाया। मित्र ने मेरा परिचय दिया- "भाईसाहब बड़े अच्छे व्यंग्य कार हैं।" यह सुनते ही सज्जन के चेहरे पर तिरस्कार के भाव उभरे। मन ही मन उन्होने अनुमान लगाया कि जरूर इस लेखक की चाल होगी। पार्टी के बहाने अपने लेख पढ़वायेगा। पर टेबल पर रखी शीवाज रीगल की बोतल देख, उनकी नाराजगी कुछ कम हो गयी। मन मार कर बोले- "चलिये इसी बहाने आपसे मुलाकात हो गयी।"

मैने भी मन ही मन सोचा, भाड़ में जाये मुझे इनसे क्या लेना देना। अपन तो पैग लगाओ। यहां वहां की चर्चा होती रही। और अखबार के  मालिक साहब इंतजार करते रहे कि कब मै अपनी रचना उन्हे दिखाउंगा । दो राऊंड होने के बाद भी जब लेख प्रकाशित करने की कोई चर्चा न हुई। तो मालिक साहब का माथा ठनका। पांच राउंड होने के बाद तो सब गहरे मित्र बन जाते हैं। ऐसे में बात टालते न बनेगी।  मालिक साहब ने बात मेरे लेखन पर मोड़ी बोले- "भाई साहब, कोई रचना साथ लाये हैं क्या। मैने पूछा- "किस लिये श्रीमान।" हकबकाये मालिक साहब ने कहा- " अखबार में छपवाने के लिये और क्यों।"  मैने पूछा- "किस अखबार में छपवाने के लिये ?" वे बोले- अरे भाई, मैं छापूंगा तो अपने अखबार मे ही ना। लगता है आप मेरी बात कुछ समझे नही।" मैने कहा- "आप तो कोई अखबार निकालते ही नहीं हैं श्रीमान।"  मालिक साहब ने असहाय भाव से मित्र की ओर देखा। मानो कह रहें हो ’कैसे आदमी के साथ बैठा दिया दो पैग में ही लग गयी है।’

मालिक साहब ने याद दिलाया- "अरे भाई मै  फ़लां अखबार का मालिक संपादक हूं, भूल गये क्या आप।" मैने पलट कर जवाब दिया- "वो तो अखबार है नही, सत्तारूढ़ पार्टी का मुखपत्र है। भाट और चारण जैसे चाटूकारिता करने वाला। अंतर यही है कि सरकार की छोटी मोटी गलतिया छाप दी जाती है । हां कभी कभी उसमे मंहगाई का जिक्र जरूर कर दिया जाता है।" मालिक साहब बैकफ़ुट पर थे- "आप गलत समझ रहे हैं। हमारा अखबार दूसरो से अलग है। हम किसी के दबाव में नही आते।" मैने कहा- "आम जनता को टोपी पहनाईगा मालिक साह्ब, हमे नही। सरकार के हर विभाग में खुला कमीशन बट रहा है। घपले हो रहे हैं। और आपके पत्रकार भी भीख मांगते वहीं पाये जाते हैं। कभी छापा आपने ?  क्या छापते हैं आप-  "अन्ना हजारे ने अपने भांजे को कांग्रेस में भरती किया" "बाबा रामदेव खुद को राम कह रहे हैं।" शांती भूषण नजर आ रहा है आपको। भ्रष्टाचार का प्रदूषण नही।  सलवा जुड़ूम के नाम पर हो रहा अत्याचार तो खैर आपको मालूम ही न होगा। नक्सलवाद की चक्की पर पिस रहे आदिवासियो के बारे में क्या किया आपने ? कुछ नही। छापते क्या हैं आप- "चमत्कारी अंगूठी", "फ़र्जी बाबाओ के विज्ञापन"। और तो और  वो लिंगवर्धक यंत्र का कभी उपयोग किया है आपने क्या मालिक साहब जो दूसरो को बतलाते हो

बात बिगड़ती देख, मालिक साहब ने समझौते का प्रयास किया- "आप इतने जोशीले आदमी हैं। लेख भी जानदार लिखते होंगे।" मैने कहा- "लिखता तो हूं, पर छापने की हिम्मत आपमे न होगी।  छाप पायेंगे उन कंपनियो की काली करतूत। जिनके शेयर आपने सस्ते दामो में ले रखे हैं। जिनके करोड़ो रूपये के एड आपके मुखपत्र को मिलते हैं। आप तो छापिये दलित लड़की से बलात्कार, सड़क हादसे, ब्लागरो से चुराये हुये लेख।" फ़िर हमने हाथ होड़ कर कहा- " हे फ़्री प्रेस के चाचा, फ़्री मे ब्लागरो के लेख पाओ और जनता को दिखाने के लिये बड़े नाम की तारे और मच्छर पर घटिया तुकबंदी छपवाओ। पर अपने को अखबार बस मत कहो।" आज भारत का चौथा स्तंभ न  बिकता, तो मजाल है भारत में ये भ्रष्टासुर पैदा हो जाता।"

अब तक चार राउंड हो चुके थे। मालिक साहब भी क्रोध में आ चुके थे । वे  जोर से चिल्लाये- "रै बेवकूफ़ भारतीय आम आदमी। इसके जिम्मेदार खुद तुम लोग हो। तुमको हर चीज फ़ोकट में चाहिये पैसा जेब से एक न निकलेगा। बस दुनिया मुफ़्त में तुम्हारी रक्षा करे। दो रूपये किलो वाला सस्ता चावल जैसे २ रूपये में सस्ता अखबार चाहिये। तो कनकी ही मिलेगा बासमती नही। बीस रूपया महिना खर्चा कर एक पत्रिका तो खरीदना नही है। कहां से रूकेगा भ्रष्टाचार। कागज का दाम मालूम है ? अखबार के खर्चे कैसे पूरे होते होंगे कभी सोचा है? तुम खुद पैसा कमाओ तो ठीक और हम लोग तुम्हारे लिये भूखा मरें। बात ध्यान से सुन - "हम लोग तुझको अखबार बेचते नहीं है। सस्ते दाम में तुझे अखबार देकर तुझको खरीद लेते हैं।"  फ़िर हम तुझे बेचते हैं उन कंपनियो को। जो हमे तुम्हारा सही दाम देती हैं। उन नेताओ को जो तुम्हारे पैसे मे ऐश करते हैं और हमे भी करवाते हैं । पैसा देकर तुम्हारी तरह फ़ोकट नही। और सुन तुझे और लोग भी खरीदते हैं सी आई ए से लेकर तमाम विदेशी। ताकि वे अपने हिसाब का लेख छपवा कर भारत में मन माफ़िक जनमत तैयार करवाएं और अपना माल खपाएं। किसी पेपर में पढ़ता है क्या कि अमेरिकी विमान रूस के समान विमान से डेढ़ गुनी कीमत के पड़ते हैं। या परमाणू रियेक्टर की कीमतो का तुलनात्मक अध्ययन। नही न क्यों क्योंकि तुम लोग पैसा नही देते उन लोग देते हैं।" फ़िर मालिक साहब ने हमारी ही तर्ज पर हमे हाथ जोड़ कहा- तो हे फ़ोकट चंद भिनभिनाना बंद कर और चैन से मुझे पैग लगाने दे।"

मैने फ़जीहत से बचने के लिये अपने मित्र की ओर देखा। पर वह तो चैन से मजा ले रहा था। अब मुझे समझ में आया। ये सारा युद्ध प्रायोजित था  मै और मालिक साहब रोमन ग्लेडिएटर की तरह उसके मजे के लिये लड़ रहे थे। मैने प्रतिरोध किया-" मालिक साहब देशभक्ती भी कोई चीज है कि नहीं। मालिक साहब बोले- "है क्यो नही दवे जी। हम लोग दाल में नमक की तरह उसको भी इस्तेमाल करते हैं। तभी तो ये देश आज बचा हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले मे हम कोई समझौता नही करते। अरे भाई अगर देश ही नही रहेगा तो फ़िर तो हम ऐश कैसे करेंगे। पर भाई लोगो को जब इंडिया टीवी मे भूत प्रेत देखने में मजा आ रहा है तो कोई क्यो खोजी पत्रकारिता कर अपना जीवन बरबाद करे।"


अब तक पांच राउंड हो चुके थे और हम और मालिक साहब  गहरे मित्र भी बन चुके थे। मालिक साहब बोले- यार वैसे तू बंदा बड़ा जोशीला है। तुझे व्यस्त न किया गया और सरकारी माल न दिया गया तो  नक्सली नेता बन जायेगा और फ़ोकट में मारा जायेगा। एक काम कर भाई  कल से मेरे आफ़िस आजा। दिन भर यहां वहां से सामग्री चुराना और जरा जोश भर के उसमे हेर फ़ेर कर देना। तू भी खुश रहेगा और मुझे भी चैन से पीने और जीने देगा।"

 मालिक साहब के विदा होने के बाद मैने दोस्त को धिक्कारा- " धुर कमीना है तू। अपने ही दोस्तो को इनवाईट कर आपस में लड़ा कर मजा लेता है।  मित्र भी दार्शनिक बन गया- " मालिक साहब की बात भूल गया। कोई भी चीज फ़ोकट में नही मिलती बेटा।  दारू का खर्चा मैने किया था तो मजे लेने के लिये ही न।"
Comments
17 Comments

17 comments:

  1. कहाँ व्यंग लिखा है आप ने ये तो सच्चाई है इन मीडिया के दलालों की...
    छद्म सेकुलर और बिकी हुए पत्रकारिता की आइना दिखाती सुन्दर रचना..

    आप के इस व्यंग से मिलता जुलता एक लेख मैंने लिखा था तो एक पत्रकार बंधू के विचार क्या थे इस दलाली के समर्थन में मीडिया के दलालों से एक हिंदुस्थानी के कुछ सवाल ...... पर पढ़ें..

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  2. बढिया, पर यह और करारा हो सकता था

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  3. कुतर्क है मालिक का. जानते तो जरूर होंगे कि विदेशों में कई अखबार तो मुफ्त में मिलते हैं और कई तो वजन में इन अखबारों के दादा होते हैं. लेकिन ऐसा तो नहीं करते वे और खर्चा भी उनका विज्ञापनों से ही निकलता है..

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  4. janta ka bhala na ye neta, na ye media , koi nahi sochta ... sab sirf apna bhala sochte hain... janta jagruk hogi to ye sab ussi ka rukh karenge...ye mauka parston ki toli hai... inhe control mein karna hai to khud jagruk hona padega...

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  5. waah..mza aa gya..solid likha hai

    sachin tripathi
    TCS
    Bangalore

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  6. कहते हैं कि ताली एक हाथ से नहीं बजती. आपका जानदार व्यंग्य पढ़कर बहुत अच्छा लगा. सटीक प्रहार किया है आपने मीडिया और पाठकों की सिचुएशन पर.

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  7. सुन्दर....बढ़िया.
    पंकज झा.

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  8. यह व्‍यंग्‍य है या हकीकत, मुझे लगता है वास्‍तव में एक लेखक कम ब्‍लॉगर कम आम आदमी के विचार और संपादक की अगर तूतू मैंमैं होती है तो ऐसे ही हो सकती है... :)

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  9. yahi ho raha hai aaj,aur aapne jo likha wo achcha bhi hai aur sachcha bhi.badhai aapki bebak kalam ko.ise banaye rakhiye kabhi na kabhi to shuruat hogi avyvastha ke ant ki.

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  10. लोकपाल को मीडिया पर भी शिकंजा कसने का अधिकार होना चाहिए|

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  11. अरे भाई कोई रस्ता भी बताओ इन कमीनो से बचने का वेसे ........

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  12. समसामयिक सच्चाई को लिए सटीक व्यंग

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  13. शीर्षक होना चाहिए, पांचवे पैग की दोस्‍ती


    अरे सच ही तो कहा उसने, सस्‍ते की आदत पड़ गई है, दो रूपये में अखबार मुहैया कराने के लिए कहीं से तो धन की व्‍यवस्‍था करेगा ही, भले ही उसके लिए अपनी नैतिकता बेचनी पड़ जाए, आपके लिए ही है सब, आपके लिए,

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  14. अखवार बाले से War...:P:)

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  15. मुझे तो ये बताओ यार, वो बोतल किधर है, जिसका जिक्र किया है?

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