Monday, October 29, 2012

फ़िल्म चक्रव्यूह से नक्सल समस्या तक


प्रकाश झा की फिल्म चक्रव्यूह देखने की इच्छा बहुत दिनों से थी। नक्सल समस्या पर बड़े बैनर की यह पहली फिल्म है और इसे देखने के बाद भारत के नौजवानों के मन में कई सवाल खड़े होंगे। प्रकाश झा का कौशल इस फिल्म में नजर नहीं आया। इसमें बंबईया मसाला भरने की मजबूरी या जिद थी। या हो सकता है कि 'पानसिंग तोमर' देखने के बाद मेरी उम्मीदें इस फिल्म से ज्यादा ही बढ़ गई थी। खैर, इस फिल्म के समाप्त होने के बाद जब मैंने अपने पांच साल के बेटे से पूछा कि वह किसकी तरफ से लड़ेगा? उसने बिना देर के जवाब दिया कि कबीर की तरफ से। कबीर इस फिल्म में नक्सलियों की विचारधारा से प्रभावित हो जाने वाले किरदार का नाम है, जिसे अभय देओल ने अद्वितीय अभिनय से निखार दिया है। सर्वोत्तम अभिनय वह होता है जब अभिनेता किरदार के अभिनय को बिना लाग लपेट के कर दिखाए। ठीक पानसिंग तोमर में इरफान खान की तरह।

जबरदस्ती भरे गए किरदारो और सेक्स दृष्यों के बीच भी फिल्म उस विषय का भेद आम भारतीय के सामने खोलने में बहुत हद तक सफल रही है, जो विषय भारत की मीडिया देश हित के नाम से कवर नहीं करती। इस देश हित की आड़ में आदिवासियों के घर जंगल और पानी उद्योगपतियों को कौड़ियों के दाम बेचती छत्तीसगढ़ सरकार भी बच निकलती है और उड़ीसा की भी। भारत का आम नागरिक भी पुलिस के जवानों की लाशों को देख उन लोगों को बहुत नफरत और क्रोध के साथ देखते हैं जिन्हें नक्सली कहा जाता है।

आम आदमी का एक ही तर्क होता है कि जब लोकतंत्र है चुने हुए जन प्रतिनिधी हैं तब हिंसा का सहारा लेने की जरूरत क्या है। लेकिन भारत का लोकतंत्र उन इलाकों में जाकर खत्म हो जाता है जहां सरकारी विज्ञापनों से पलते पत्रकार नहीं जाते। जहां चुनावों में बकरा शराब बाट जीत जाने के बाद जनप्रतिनिधी नहीं झांकते। वे न इस बाजारवादी तंत्र के ग्राहक हैं और न ही उस महान देश के सम्मानित नागरिक जिसे इंडिया कहा जाता है। वे आदिवासी हैं। वे आदिवासी जिनके प्राकृतिक वनों को काटकर उन्हें इमारती लकड़ी के बंजर बागानों में बदल दिया गया। क्यों बदल दिया गया? क्योंकि उनके फल और फूल देने वाले पौधे न शहरी लोगों के फर्निचर में काम आ सकते थे, न पेड़ से तोड़ कर फल खाते आदिवासी के पास इस देश को देने के लिए कोई रेवेन्यू था। जाहिर है वहां विकास की जरूरत थी। वह विकास जिसमें शासन तंत्र से लेकर उसे वापस देने का सिस्टम बन सके। इसी लेन देन में तो अफसर और नेताओं की कमाई होती है।

वनों में इस बदलाव ने प्राकृतिक धन संपन्न आदिवासियों को कंगाल बना दिया। अपने जंगलों से भोजन ईंधन लेने पर अब वे चोर बन जाते है। और इस चोरी का खामियाजा पुलिस और वनविभाग के अदने कर्मचारियों की खिदमत से चुकाना होता है। यह खिदमत बेटी की इज्जत देकर भी की जाती है और मुर्गा देकर भी। लेकिन इतने से ही विकास कहां होता है भला! अब तो खदान-खदान खेलने को विकास कहते हैं। उन खदानों से नोट निकले तब न विकास टाइप का फील होगा भाई! अब इस विकास के लिए कुछ लाख लोगों को उनके घर से भगा कर उनके गांव नेस्तनाबूद करना पड़े तो कीमत कम ही है। लेकिन ये नक्स्लवादी देशद्रोही भी न पता नहीं कहां से आकर टपक गए। भोले भाले आदिवासियों को पट्टी पढ़ा दी। जल जमीन जंगल तुम्हारा है। मनमोहन सिंह या रमन सिंह के बाप का नहीं। खनिज खोदना है तो रेड्डी बंधु नहीं आदिवासी बंधु खोदेंगे। हथियार भी थमा दिए और विचारधारा भी। आप जंगल में आओ बेटा तब पता चले कि जब गरीब आदिवासी अपने घर को बचाने के लिए लड़ता है, तब कैसा युद्ध होता है। लेकिन अपने गृह मंत्रालय के मोटे-मोटे अफसर भी कोई कम थोड़ी थे। उन्होंने दूसरे आदिवासियों को हथियार थमा दिए बोला सलवा जुड़ुम करो। अब जाओ लड़ो साले आपस में आदिवासी ने आदिवासी को मारा कोई केस नहीं बनता। भला एक दलित दूसरे दलित को चमार कहे तो कौन जज सजा दे सकता है भाई।

अब साहब चल रहा है संग्राम, दिल्ली के सत्ता के गलियारों से हजारों प्रकाश वर्ष की दूरी पर। किसको कौन सी खदान मिलेगी उसका एमओयू पहले हो चुका है। दोनो तरफ के लोगों का स्टेक भी है। सलवा जुड़ुम में नोट और सत्ता की ताकत से लबरेज नेता है, तो नक्सलियों की तरफ भी लेव्ही से अरबों रुपए वसूलते नेता। और सरकार के अधिकारियों के पास भी अरबो का फंड आ रहा है आदिवासियों के विकास के लिए। सबका धंधा चमक रहा है, दिवाली में घर दमक रहा है, अब कुछ लोग तो मरेंगे ही न भाई इसको ही तो कोलेटेरल डैमेज कहते हैं। सिपाही मरे या नक्सल, मरता गरीब का ही बेटा है। कलेक्टर का अपरहरण हो जाए तो देश की सांसे थम जाती हैं, मीडिया खबरदार हो जाती है। पैसा देकर कुछ बंदी एक्सचेंज कर कलेक्टर घर आया नहीं कि फेर शुरू। इंडिया के सिटीजन तो बेचारे हर देश भक्त सिपाही की मौत पर आंसू बहा ही लेते हैं।

रही बात नक्सलवाद की तो अकूत धन कमाते होनहार सपूत की तरह हर नेता चाहता है, काश हमारे इलाके में भी हो जाता तो कितना अच्छा रहता।
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2 Comments

2 comments:

  1. दवे जी, लिखा तो आज बहुत अच्छा है, लेकिन जब आपकी कलम दोनों पलड़ों को बराबर करने लगती है तो मामला गड़बड़ा जाता है..

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  2. इंडियन राम भी हुए 'मेड इन चाइना' के मुरीद - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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