Monday, January 24, 2011

PLIGHT OF TIGERS AND THE TRIBALS



                                                      @ Arunesh c dave
                                                          A tribesman with forest produced honey comb


 
There is hue and cry going around about tiger deaths in infighting and in conflict with the humans. Activists involved in tiger protection blame the Forest Department for being irresponsible while the Forest Department either claim it to be a natural phenomenon or looks out for scapegoats in tribal or its own lower cadre . But if we assess practically, we can draw a simple conclusion i.e. the number of tiger has reduced to the point of extinction as a consequence of our past actions.
 

Britishers in their time of rule in India started to change our natural forest  which comprised mostly of fruit and flower bearing trees to plantation of commercial timbers in the name of standardization  of forest . while doing so they failed to analyze the impact and catastrophe it will cause on wildlife as well as human beings . Post independence forest department of India which followed rules and regulations laid by their predecessors did the same work .No place apart from former hunting grounds of maharajah's , some remote area's or  areas under patronage  of people like Corbet and Billy arjun singh and some reserve forests  which came under project tiger in early stages  and had the advantage of evicted grasslands  tigers are  no where to be seen .
 

 why tigers are  not in production forests which covers a huge chunk of our remaining forest cover  is not a mathematical quest answer is simple and it is for all other species too "unless food is there none can survive"  .  In production forests we do not have fruit and flower bearing trees instead have tree's like teak and sal etc to fulfill the need of rich people but it  dose not provide food to herbivores and tribals and they also prevent under growth of grass and shrubs . And in absence of fruits; flowers grass and shrubs herbivorous rely on crops of villagers but in absence of of forest food these crops are only life line of these tribal villagers so they  kill them . In absence of herbivore tiger too relay on village animals and in turn gets the highest  punishment of death .


Forest of our national parks too have already been standardized and contain mostly sal , teak and similar trees but they have huge grass lands which were created by shifting villages under project tigers . These grasslands are the last support of the food chain of our dwindling tiger population and that is why our forest officers are so keen to shift villages out of national parks and sanctuaries . They also know know that  re-convert  these commercial forest in to natural forest is huge and moneyless task so they don't even dream of it

 
Availability of  food decides number of tigers any park can sustain  it decides how much sq km a tiger will need to survive this area differs from park to park (e.g. kaziranga has a tiger per three sq km  and kanha has a tiger every 12 sq km ) this area also differs within the park  depending on richness of habitat  . suppose kanha can sustain 120 tigers , as per my own estimates  at least 20 new  tigers will look for their place in this jam packed place very few mostly females  will find room for natural reasons and unlucky one's will go either outside or will die in infighting.
 

 

Those tigers which opt to go out of park boundaries are destined to live in degraded or commercially converted production forests and death is almost certain for aforesaid reasons . this problem gets worse when females having half grown cubs go out due to change in dominance of male tigers  in this case female needs double food and has limited mobility and in turn death is almost certain to her and her little ones . These deaths were pre decided not by god but by us we have created a situation in which no tiger can survive outside the national parks and when heavy poaching takes place like it did in panaa and sariska there were no tigers in periphery to claim the place and parks became tiger less


This is not plight of tigers alone tribal people which relied heavily on forest to provide food after standardization of forest ended up to so dire consequences that when prime minister of India visited kalahandi (orrisa) two women of same family could not  come out to meet him at the same time as they had only 1 dress to share  .  Any one who claims to be conservationist must understand forest is for all tigers and tribal not for the need of people of cities and unless we reconvert out forests in to fruit and flower bearing trees all we can do is wishful thinking

Wednesday, January 19, 2011

जंगली भैंसा - एक लुप्त होता शानदार प्राणी

  छत्तीसगढ़ के जंगलों से विलुप्त होती एक शानदार प्रजाति!




एशियाई जंगली भैसा (Bubalis bubalis arnee or Bubalus arnee)  की संख्या आज 4000 से भी कम रह गई है । एक सदी पहले तक पूरे दक्षिण पूर्व एशिया मे बड़ी तादाद मे पाये जाने वाला जंगली भैसा आज केवल भारत नेपाल बर्मा और थाइलैंड मे ही पाया जाता है । भारत मे काजीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान मे ये पाया जाता है । मध्य भारत मे यह छ्त्तीसगढ़ मे रायपुर संभाग और बस्तर मे पाया जाता है ।
 छ्त्तीसगढ़ मे इनकी दर्ज संख्या आठ है । जिन्हे अब सुरक्षित घेरे में रख कर उनका प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है । लेकिन उसमें भी समस्या यह है कि मादा केवल एक है, और उस मादा पर भी एक ग्रामीण का दावा है, कि वह उसकी पालतू भैंस है । खैर ग्रामीण को तो मुआवजा दे दिया गया पर समस्या फ़िर भी बनी हुई है, यदि मादा केवल नर शावकों को ही जन्म दे रही है, अब तक उसने दो नर बछ्ड़ों को जन्म दिया है । पहले नर शावक के जन्म के बाद ही वन अधिकारिय़ों ने मादा शावक के जन्म के लिये पूजा पाठ और मन्नतों तक का सहारा लिया और तो और शासन ने तो एक कदम आगे जाकर उद्यान मे महिला संचालिका की नियुक्ति भी कर दी, ताकि मादा भैस को कुछ  इशारा तो मिले, पर नतीजा फ़िर वही हुआ मादा ने फ़िर नर शावक को ही जन्म दिया। 
शायद पालतू भैसो पर लागू होने वाली कहावत कि "भैस के आगे बीन बजाये भैस खड़ी पगुरावै" जंगली भैसों पर भी लागू होती है।


मादा अपने जीवन काल मे 5 शावकों को जन्म देती है, इनकी जीवन अवधि ९ वर्ष की होती है । नर शावक दो वर्ष की उम्र मे झुंड छोड़ देते है । शावकों का जन्म अक्सर बारिश के मौसम के अंत में होता है । आम तौर पर मादा जंगली भैसें और शावक झुंड बना कर रहती है और नर झुंड से अलग रहते हैं पर यदि झुंड की कोइ मादा गर्भ धारण के लिये तैयार होती है तो सबसे ताकतवर नर उसके पास किसी और नर को नही आने देता । यह नर आम तौर पर झुंड के आसपास ही बना रहता है । यदि किसी शावक की मां मर जाये तो दूसरी मादायें उसे अपना लेती हैं । इनका स्वभाविक शत्रु बाघ है, पर यदि जंगली भैसा  कमजोर बूढ़ा या बीमार हो तो जंगली कुत्तों और तेदुये को भी इनका शिकार करते देखा गया है । वैसे इनको सबसे बड़ा खतरा पालतू मवेशियो से संक्रमित बीमारिया ही है,  इनमे प्रमुख बीमारी फ़ुट एंड माउथ है । रिडंर्पेस्ट नाम की बिमारी ने एक समय इनकी संख्या मे बहुत कमी लाई थी ।



जब धोखा खागये कथित एक्स्पर्ट:
इन पर दूसरा बड़ा खतरा जेनेटिक प्रदूषण  है,  जंगली भैसा पालतू भैंसो से संपर्क स्थापित कर लेता है । हालांकि फ़्लैमैंड और टुलॊच जैसे शोधकर्ताओ का मानना है कि आम तौर पर जंगली नर भैसा पालतू नर भैसे को मादा के पास नही आने देता पर स्वयं पालतू मादा भैसे से संपर्क कर लेता है पर इस विषय पर अभी गहराई से शोध किया जाना बाकी है । मध्य भारत के जिन इलाकों में यह पाया जाता है,  वहां की पालतू भैसें भी इनसे मिलती जुलती नजर आती है । इस बात को एक मजेदार घटना से  समझा जा सकता है । कुछ वर्षो पहले बीजापुर के वन-मंडलाधिकारी श्री रमन पंड्या के साथ बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की एक टीम जंगली भैसो का अध्ययन करने और चित्र लेने के लिये इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान पहुंची, उन्हे  जंगली भैसो  का एक बड़ा झुंड नजर आया और उनके सैकड़ो चित्र लिये गये और एक श्रीमान जो उस समय देश में जंगली भैसो  के बड़े जानकार माने जाते थे, बाकी लोगो को जंगली भैसो  और पालतू भैसो के बीच अंतर समझाने में व्यस्त हो गये तभी अचानक एक चरवाहा आया और सारी भैसों को हांक कर ले गया ।

अनुचित वृक्षारोपण:
मध्य भारत मे जंगली भैसो के विलुप्तता की कगार पर पहुंचने का एक प्रमुख कारण उसका व्यहवार है, जहां एक ओर गौर बारिश मे उंचे स्थानॊ पर चले जाते हैं, वही जंगली भैसे मैदानों में खेतों के आस पास ही रहते हैं और खेतो को बहुत नुकसान पहुचाते हैं । इस कारण गांव वाले उसका शिकार कर देते हैं । एक कारण यह भी है कि प्राकृतिक जंगलों का विनाश कर दिया गया है, और उनके स्थान पर शहरी जरूरतों को पूरा करने वाले सागौन साल नीलगिरी जैसे पेड़ो का रोपण कर दिया है। इनमें से कुछ के पत्ते अखाद्य है, इनके नीचे वह घास नही उग पाती जिनको ये खाते है,  वैसे भी जंगली भैसे बहुत चुनिंदा भोजन करती है । इस कारण भी इनका गांव वालों से टकराव बहुत बढ़ गया है।

बेरवा पद्धति और जंगल में सन्तुलन
टकराव बढ़ने का एक कारण यह भी है, कि पहले आदिवासी बेरवा पद्धति से खेती करते थे । इसमे उनको ज्यादा मेहनत नही करनी पड़ती थी । जंगल के टुकड़े जला कर उनमे बिना हल चलाये बीज छिड़क दिये जाते थे । राख एक बेहद उत्तम उर्वरक का काम करती थी। पैदावार भी बहुत अच्छी मिल जाती थी । इसके अलावा जंगलो में कंदमूल और फ़ल भी प्रचुरता से मिल जाते थे। यदा कदा किये जाने वाले शिकार से भी उन्हे भोजन की कमी नही होती थी। वे खेती पर पूर्ण रूप से निर्भर नही थे । इसलिये वन्य प्राणियों द्वारा फ़सल में से कुछ हिस्सा खा लिये जाने पर इनमे बैर भाव नही आता था । और हर दो या तीन साल मे जगह बदल लिये जाने के कारण पिछ्ली जगह घास के मैदान बन जाते थे। वन्य प्राणियों को चारे की कोई कमी नही होती थी। अतः यदा कदा किये जाने वाले शिकार से उनकी संख्या मे कोइ कमी नही आती थी ।

आदिवासियों के अधिकारों का हनन वन्य जीवों के लिए बना संकट
अब चूंकि आदिवासियों के पास स्थाई खेत हैं, जिनकी उर्वरता उत्तरोत्तर कम होती जाती है। और इनमे हल चलाना खरपतवार निकालना और उर्वरक डालने जैसे काम करने पड़ते है, जिनमे काफ़ी श्रम और पैसा लगता है । इसके अलावा खेतों की घेराबंदी के लिये बास बल्ली और अन्य वन उत्पाद लेने की इजाजत भी नही है, अतः अब आदिवासी अपनी फ़सलों के नुकसान पर  वन्य प्राणियो के जानी दुश्मन हो जाते हैं । इन्ही सब कारणो से जंगली भैसे आज दुर्लभतम प्राणियों के श्रेणी मे आ गये हैं ।

खैर यह सब हो चुका है और इस नुकसान की भरपाई करना हमारे बस में नही है । लेकिन एक जगह ऐसी है जो आज तक विकास के विनाश से अछूती है। वह जगह आज भी ठीक वैसी है जैसा प्रकृति ने उसे करोड़ो सालों के विकास क्रम से बनाया है, जहां आज भी बेरवा पद्धति से खेती होती है, और जहां आज भी वनभैसा बड़े झुंडो में शान से विचरता देखा जा सकता है, जहां बड़ी संख्या में बाघ भालू ढोल पहाड़ी मैना और अनेक अन्य जानवर शांति से अपना अपना जीवन यापन कर रहे हैं। जहां प्रकृति प्रदत्त हजारों किस्म की  वनस्पतियां पेड़ पौधे जिनमे से अनेक आज शेष भारत से विलुप्त हो चुके है, फ़ल फ़ूल रहे हैं।



एक प्राकृतिक स्वर्ग को नष्ट करने की साजिश:
करीब 5000 वर्ग किलोमीटर के इस स्वर्ग का नाम है अबूझमाड़ । ना यहां धुंआ उड़ाते कारखाने है ना धूल उड़ाती खदाने । और ना ही वे सड़के हैं जिनसे होकर विनाश यहां तक पहुंच सके । पर यह सब कुछ बदलने वाला है और कुछ तो बदल भी चुका है । यहां पर रहने वाले आदिवासिय़ॊं को तथाकथित कामरेड बंदूके थमा रहे है । हजारो सालो तक स्वर्ग रही इस धरती पर इन स्वयंभू कामरेडो ने बारूदो के ढेर लगा दिये है । इस सुरम्य धरती पर इन लोगो ने ऐसी बारूदी सुरंगे बिछा दी है, जो सुरक्षा बलों आदिवासियों और वन्य प्राणियों में फ़र्क नही कर सकती । और सबसे बड़े खेद की बात तो यह है, कि जिन योजनाओ का डर दिखा कर इन्होने आदिवासियो को भड़्काया था, हमारी सरकार आज उन्ही को लागू करने जा रही है । अबूझमाड़ में बिना पहुंचे और कोई अध्ययन कराये यहां खदानो का आबंटन किया जा रहा है । और हमारे वंशजों की इस धरोहर को इसलिये नही बरबाद किया जायेगा, कि देश मे लौह अयस्क की कोई कमी है, बल्कि  इस अयस्क को निर्यात करके पहले ही धन कुबेर बन चुके खदानपतियो का लालच अब सारी सीमाए तोड़ चुका है, और वे इतने ताकतवर हो चुके है, कि अब वे नेताओ के नही बल्की नेता उनके इशारो पर नाचते है। उनकी नजरो में वन्यप्राणी और आदिवासियों की कोई कीमत नही । प्राकृतिक असंतुलन ग्लोबल वार्मिंग नदियों का पानी विहीन होना  और अकाल जैसे शब्दों का इनसे कोई वास्ता नही । जब तक दुनिया में एक भी जगह रहने लायक रहेगी तब तक इनके पास मजे से जीने का पैसा तो भरपूर होगा ही । इन्ही करतूतों से हमारे इन जंगलों में बची हुई जंगली भैंसों की आबादी भी नष्ट हो जायेगी!

Sunday, January 16, 2011

शंकरी बाघिन और हीरे की खोज


                                बायें से दायें - लेखक ,संजय जायसवाल , मनीष धांडे

मई के गर्म दिनो की एक दोपहर मुझे एक फोन आया मैनपुर से जो कि आज नक्सल प्रभावित क्षेत्र है और उस समय धुर आदिवासी इलाका था । खबर यह थी कि इंदागांव के पास  एक बाघ तकरीबन रोज देखा जा रहा है । फोन करने वाला व्यक्ती था परभू जो कि एक अर्धशहरी आदिवासी था याने की उसके पास शहरी लोगों कि कुटलिता भी थी और आदिवासियो का नैसर्गिक भोलापन भी था । इस खबर को सुनते ही मै व्याकुल हो उठा और जाने की योजनाएं बनाने मे व्यस्त हो गया लेकिन समस्या यह थी कि हाल मे ही मेरा परीक्षा परिणाम आया था और उसके बाद मेरे पूरे खानदान मे मुझे कॊई एक रूपये भी देने वाला नही था । और पैसे अगर मिल भी जाते तो साहब अपने पैसे से जंगल घूमने मे मुझे वो आनंद कहां आता  जैसा मुफ़्त मे घूमने पर आता है ।


खैर तकरीबन एक घन्टे तक दिमाग लगाने के बाद मुझे यह समझ मे आ गया कि जाना मुश्किल ही नही असंभव है क्योंकि गर्मी की छुट्टियों मे मैं अपने तकरीबन हर दोस्त को चूना लगा चुका था । इस पर मै समस्त नेताओ और अधिकारियों को कोसता हुआ कसमसा रहा था कि मेरे जैसा महान वन्यजीव विषेशज्ञ आज एक एक पैसे को मोहताज है । ऐसे मे समय काटने के लिये मैने अखबार उठाया और पहली खबर जिस पर मेरी नजर गय़ी वह यह थी कि मैनपुर मे हीरे की खदान खोजी गयी है ऐसे मे मै पहले सपने देखने लगा कि मुझे हीरे मिल गये है और मै उसके बाद तमाम उम्र जंगल मे रह रहा हूं इसी बीच अचानक मै होशो हवास मे आया और मेरे दिमाग मे एक विचार आया उस विचार को अमली जामा पहनाने के लिये मैने चारे के लिये आर्मी कैंटीन से एक रम की बोतल जुगाड़ी


रात मे मेरे बुलावे पर मेरे दोस्त संजय जायसवाल और मनीष धांडे जब पहुचे तो उनकी सावधानी का स्तर इतना ज्यादा था कि दोनो अपना पर्स घर मे रखकर आये थे इस पर मेरे द्वारा की गयी खाने और पीने की व्यवस्था देखकर दोनो और सतर्क होकर बैठ गये । लेकिन मै भी पुराना घाघ था दो दो पैग अंदर जाते ही मैने  बातचीत कि दिशा मैने  उन सुंदर अमीर लड़कियों की ओर मोड़ी  जो बिना तगड़े पैसे वाले लड़को को घास भी नही डालती थी अब वे दोनो भी मेरी बात से पूरी तरह  सहमत थे (दोनो ऐन ऐसी ही लड़कियो से प्रेम करते थे) हालांकि अब हीरे की खदान पर बात करने का समय आ चुका था लेकिन संजय के खर्चे पर मै सबसे अधिक बार जंगल घूम चुका था और इस बात उसे बड़ा मलाल था । ऐसे मे संजय ने छूटते ही मुझसे पूछा कि मुझे लड़कियों से क्या लेना देना है और यह भी कि मै तो दूसरो के खर्चे पर अपना जंगल जाने का शौक पूरा कर ही लेता हूं । ऐसे मे मैने भारी मन से स्वीकार किया कि अब ऐसा करना मुश्किल हो गया है यार लोग देखते ही रास्ता बदल लेते हैं  किसी अच्छे काम के लिये भी मिलो तो शक की निगाह से देखते हैं । मैने कहा कि मैं शर्त लगाने को तैयार हूं कि तुम दोनो अपना पर्स घर मे छोड़ के आये होगे और यह भी कि आज मै सुधरना चाहता हूं तो सबसे अच्छे दोस्त भी मुझ पर विश्वास नही कर रहे । यह सुनते ही दोनो आत्म ग्लानी से भर गये । संजय ने मेरा पैग बनाया  मनीष ने पानी डाला और भारी मन से बोला जो बीत गयी उसे छोड़ो और अब आगे करना क्या है वो बता।



मैने तुरंत अखबार की कटिंग निकाली और उनके सामने रख दी और कहा कि पैसा कमाने का इससे सुनहरा अवसर फ़िर नही मिलेगा दोनो खबर पढ़ते ही उत्साहित हो उठे पर संजय अभी भी पूरी तरह आश्वस्त नही था उसने योजना में तरह तरह की कमियां निकालने का प्रयास किया लेकिन मेरी तैयारी मे कोई कमी नही थी और यह बात तय थी कि आज की रात मै बाघिन के और वे दोनो हीरों के सपने देखने वाले थे हालांकि बीच मे एक बार उनके दिमाग मे ये खयाल भी आया कि इस योजना पर तो वे दोनो भी अमल कर सकते हैं और मुफ़्त मे मुझे पार्टनर क्यों बनाया जाय पर मेरे यह समझाने पर कि यह योजना तो मै ही लेकर आया था और यदी मेरे पास  पैसे आ जाय तो मेरी मुफ़्त मे जंगल घूमने की आदत से उन्हें सालाना होने वाला नुकसान भी नही होगा वे तुरंत सहमत हो गये । बस क्या था साहब अगली सुबह दो मोटरसाईकिलो से निकल पड़े हम लोग मैनपुर से परभू को साथ लेकर पहुच गये पहले जुंगाड़ और फ़िर इंदागाव मेरी योजना यह थी की राज फ़ाश होने के पहले तो महुआ की बियर और देशी मुर्गे का मजा ले लिया जाय  उसके बाद जो प्राथमिकता थी वह यह कि बाघिन होने या न होने की असलियत पता की जाय , बाघिन की खबर सत्य पायी जाने पर उसके द्वारा अकसर प्रयोग मे लाये जाने वाले पानी के स्त्रोत का पता लगाकर वहां मचान बाधंकर एक दो रात गुजारी जाय ।


अगले दिन सुबह पतासाजी करने दो बाते मालूम पड़ी एक तो यह की खबर पूरी सच नही थी बाघिन को देखा तो जा रहा  था पर रोज नही दूसरी यह कि बाघिन ने अभी तक आस पास के गांवो मे किसी पशु को नही मारा था । कान्हा जैसे प्रसिद्ध उद्यानो के विपरीत भारत के आम जंगलो मे जो पर्यटको से अछूते हों बाघो का देखा जाना एक असामान्य चीज है तेंदुओ के उलट बाघ आमतौर पर मनुष्यों से दूर ही रहते हैं और अभी भी बाघिन के दिखने की खबर पर पूरा यकीन नही किया जा सकता था हो सकता था कि बड़े आकार के मर तेंदुए की झलक पाकर किसी उत्साही ग्रामीण ने बाघ की घोषणा कर दी हो या किसी एक को बाघ दिखने पर बाकियो ने खुद कॊ बाघ दिखने की बात फ़ैला दी हॊ ।




किसी भी जंगल मे बाघ है कि नही यह जानने के लिये जो तरीका कारगर है वह यह है कि बाघ की भोजन श्रंखला की उपस्थिती बाघ के किसी भी जगह मौजूद होने के लिये उसका भोजन वहां मौजूद होना बेहद आवश्यक है यही नियम हर प्राणी पर लागू होता है हम पर भी  गर्मियों मे यह काम और आसान हो जाता है । फ़सल के दिनो मे हिरण जंगली सुअर  आदि वन्य प्राणी खेतो की ओर खिचे चले आते हैं और उनके पीछे बाघ भी लेकिन गर्मियो मे वन्य प्राणी आम तौर पर जंगल मे  पानी के स्त्रोत के पास ही रहते हैं और ऐसे मे पानी का स्त्रोत वहा रहने वाले हर जीव की खबर दे देता है । खैर साहब योजना यह थी पहले बायी तरफ़ आगे जाकर उस नाले मे उतरा जाय जो कि आगे जाकर हीरे की खदान के बाजू मे देवधारा नाम के जल प्रपात से होकर आती हुई उदंती नदी की जल धारा से मिलता है (यह नदी सतकोशिया अभ्यारण्य होते हुये हीराकुन्ड बांध के ठीक बाद महानदी से जाकर मिल जाती है) । इसके बाद फ़िर बायीं ओर मुड़कर देव धारा तक सफ़र किया जाता इस योजना मे फ़ायदा यह था कि लम्बे क्षेत्र मे हुये वन्यप्राणियों के आवागमन की सटीक जानकारी मिल जाती और  इस काम के पूरा होने पर हम ठीक हीरे की खदान के बाजू निकलते इससे  हीरे की तलाश भी साबित हो जाती ।



अगली सुबह नाले मे पहुचने पर सबसे पहले नेवले के दर्शन हुये आगे बढ़ते हुये हम चारों नाले मे तलाश करने लगे मैं और परभू वन्यप्राणियो के पैरो के निशान की और मेरे दोस्त हीरे की हालांकि मै भी बीच बीच मे चमकीले पत्थरों का मुयायना कर लेता था अगर बाघिन के साथ दैवयोग से हीरे भी मिल जाते तो इसमे नुकसान कहां था। आगे बढ़ने पर सांभर सियार भालू आदी जानवरों के पैरों के निशान तो मिल रहे थे पर बाघ का कॊई निशान नही था और जब परभू ने जंगली कुत्तों के निशान की ओर मेरा ध्यान खींचा मन मे निराशा छा गई मेरी समझ से अब बाघिन के मिलने की संभावना नगण्य थी इस पर मेरा ध्यान अपने दोस्तों की ओर गया जिस लगन से वे हीरे की तलाश कर रहे थे उस से आधी भी उन लोगो ने पढ़ाई मे लगाई होती तो आज वे आई एफ़ एस होते और मैं जीवन भर उनके सहारे मुफ़्त मे जंगल घूम सकता था । खैर साहब बाघिन न सहीं मै जंगल मे तो था जिसकी सुगंध मात्र से मेरा रोम रोम पुलकित हो जाता था और परभू के थैले मे महुआ की बियर भी भरी हुई थी ऐसे मे पुनः प्रसन्न मन से मैं आगे बढ़ चला । नाले के दोनो ओर मुख्यतः बांस और साल के पॆड़ थे  जंगल एक दम शांत था सिवाय सतबहनिया पक्षियो की बीच होती खटपट और एक रैकेट टेल ड्रोंगो के जो पता नही किस चिड़िया की नकल उतार रहा था । ऐसे मे मैने आराम करने की सोची इसके लिये उपयुक्त जगह के बारे मे सोचने लगा आगे एक गोलाकार जगह थी जहां नाले ने रस्ता बदल कर मोड़ ले लिया था वहां पानी और छांव दोनो उपलब्ध थी वहां महुए की एक बोतल खाली करने का विचार बुरा नही था ।

मै सबसे आगे हो गया था और परभू थोड़ा पीछे बाजू मे और दोनो हीरा खॊजी सबसे पीछे । परभू मुझे मन ही मन थॊड़ा सनकी मानता था उसके विचार से बिना हथियार के और बिना शिकार की इच्छा के इस तरह जंगल घूमने वाला सिवाय सनकी के कुछ और नही हो सकता था लेकिन जैसे बाघ के पीछे रहने वाले सियार का काम चल जाता है ठीक वैसे ही मेरे जैसे मुफ़तिया घुमक्कड़ के साथ उसका भी चल जाता था और डी एफ़ ओ साहब के भांजे के साथ घूमने के कारण वन कर्मचारी भी उसका थोडा मान रखते थे इसलिये वह मेरे साथ प्रसन्न रहता था और सामान खरीदी के पैसों मे रोजी भी निकल जाती थी ।

खैर साहब उस मोड़ पर जैसे मैं मुड़ा तो दो चीजे एक साथ हुई एक कॊटरी चमक कर महज कुछ फ़ुट की दूरी से भागा शायद हमारे रेत पर चलने से उसे आवाज नही आयी थी और जैसे ही मै कोटरी के भागने की दिशा में देखने लगा ठीक वैसे ही एक भयानक आवाज से मेरे कान सुन्न हो गये और वापस देखने पर मुझे एक बाघ का चेहरा जो कि  एकदम गोल कान पीछे मुड़े हुये और आंखे एकदम गोल अपनी ओर आता नजर आया और पीछे से परभू आवाज आयी भागो बाघ मै अपनी जगह पर जड़ था दिमाग सुन्न उसके बाद के कुछ क्षणो मे क्या हुआ मुझे पता नही आंखो के सामने लालिमा छा गयी । होश मे आने के बाद मैने देखा वह यह कि बाघ बायी ओर से उसी दिशा मे किन्तु थोड़ी दूरी बनाते हुए जा रहा था जिस तरफ़ मेरे साथी भागे थे फ़िर कुछ दूरी से बाघ की एक और दहाड़ सुनाई दी मैं वही पर बैठ गया कुछ मिनटो बाद जब होश हवास ठिकाने मे आये तो  कांपती टांगो से  गांव वापस जाने का रस्ता पकड़ा ।


 कुछ दूर चलने के बाद एक टीले पर खड़े होकर मैने देखा कि मेरे साथी पूरी रफ़्तार से गांव की ओर भाग रहे थे । भागना तो मैं भी चाहता था पर ताकत नही थी और अभी मेरा पैंट जिस स्थिती मे था उसे साफ़ किये बिना गांव जाने पर भारी खिल्ली उड़ती ।मेरे तालाब से होकर गांव पहुचने तक दो बाते हो चुकी थी पहली यह कि मेरे साथी कुछ दूर भागकर मेरे लिये रुके थे लेकिन बाघ की दूसरी दहाड़ सुनकर उनकी हिम्मत जवाब दे गयी और मेरे जीवित होने की आशा उन्होने छोड़ दी । दूसरी यह जब तीनो भाग कर गांव पहुचे और उन्होने घटना की खबर दी तो वहां एक वनरक्षक मौजूद था जिसने पहले से उस इलाके बाघ दिखने के बाद गांव वालो को वहा जाने से मना कर रखा था इसके अलावा जब उसे यह मालूम हुआ कि जिस पर हमला हुआ है वह डी एफ़ ओ साहब का भांजा है तो उसने कड़क कर तीनो से पूछा वे वहां क्या खोजने गये थे तो उसे एक साथ दो जवाब मिले मेरे दोस्तो ने कहा हीरा और परभू जो अब थर थर कांप रहा था ने कहा बाघिन इस जवाब को सुनकर मेरे दोस्तो को पूरा माजरा समझ मे आ गया  ।


अब साहब जैसे ग्रुहमंत्री का कुत्ता चोरी होने पर पुलिस विभाग सक्रिय हो जाता है वैसे ही  डी एफ़ ओ साहब के भांजे की खबर सुनकर वनविभाग सक्रिय हो गया और खोजी दल तैयार हो चुका था कि मै पहुंचा मेरे पहुंचते ही मेरा प्यारा दोस्त संजय जायसवाल मेरे गले से लिपट गया हम दोनो की ही आंख मे आंसू थे ।तभी पीछे से मनीष की आवाज आयी संजय इस कमीने ने फ़िर हमको टोपी पहना कर जंगल घूम लिया इतना सुनते ही संजय छिटककर मुझसे दूर हो गया और बोला मैने सुना था कि बिल्ली की नौ जिंदगिया होती है पर कुत्ते की दो जिंदगी होती है यह पहली बार देखा । यह बोलकर दोनो ने अपनी अपनी गाड़ी चालू कि और बोले साले तू आना अपने खर्चे मे लौट कर और वापस रायपुर की ओर चले गये । अब बारी परभू की थी वह भी मुझसे लिपट कर रोया और बोला मै बच गया भईया वरना साहब लोग मुझे बहुत मारते । मै उसे दिलासा दे ही रहा था कि खबर सुनते ही एस डी ओ साहब जो कि इलाके के दौरे पर थे पहुंच गये और मुझे ठीक ठाक देखकर उन्होने राहत की सांस ली और उनके साथ गाड़ी मे मैं मैनपुर तक आ गया । रास्ते मे मैने अपने दोस्तो को भी देखा पर वे मुझे  नही देखा । मैनपुर पहुच कर गाड़ी विश्रामग्रह मे रुकी और मैने साहब के बहुत हाथ पैर जोड़े कि यह बात मेरे मामा को न बतायें वरना मेरी बहुत पिटाई होगी इस वादे पर कि अब मैं कभी जंगल नही घूमुंगा उन्होने हां कहा और चौकीदार को खाने की व्यव्स्था करने और ड्राईवर को मुझे बसस्टैंड पहुचाने का निर्देश देकर चले गये ।

अब साहब मैने चौकीदार को तीन लोगों का खाना बनाने को कहा और ड्राईवर को कहा कि मेरे दो दोस्त जो रास्ते पर दिखे थे वे आते होंगे उन्हे रोककर कहना कि बड़े साहब बुला रहे हैं । कुछ देर बाद जब दोनो बड़े साहब से मिलने अंदर आये और आराम कुर्सी पर मुझे बैठा देखा तो दोनो आश्चर्य चकित हो गये मैने बताया कि मैं वनविभाग की गाड़ी से आया  और तुम  लोगों का खाना भी यहीं है ।  खाना खाते खाते दोनो का गुस्सा भी कम हो गया और हममे बातचीत भी चालू हो गयी । खाना खाने के बाद जब हम बाहर आये तो मैने उनसे कहा कि आराम से जाना तो दोनो जो ये सोच रहे थे कि मै साथ ले चलने की मिन्नते करूंगा ने पूछा कि मै किसमे जाउंगा तो मैने गाड़ी की ओर इशारा किया । अब वे दोनो भरी गर्मी मे बाईक से तपते हुये जांये और मै आराम से गाड़ी मे ये उनकी बर्दाश्त से बाहर था अब दोनो ने लगभग धमकाते हुये कहा तू हमारे साथ आया था और हमारे साथ ही जायेगा बस क्या था एक बार फ़िर मै उनके खर्चे पर ही अपने घर की ओर लौट चला


आज भी मेरे ये दोनो दोस्त मेरे साथ जंगल घूमने जाते हैं अंतर बस इतना है कि अब मुझे अपना हिस्सा एडवांस मे जमा कराना पड़ता है  हांलाकि मेरी मुफ़्तखोरी की  पुरानी और असाध्य बीमारी को देखते हुये मुझे १०-२० % की छूट मिल जाती है पर अब इस लेख के प्रकाशित होने पर शायद यह छूट मिलना भी बंद हो जाये ।



इस घटना के ५ महीने बाद उसी जगह  एक बाघिन शिकारियों के फ़ंदे मे फ़स गयी । यह फ़ंदा आम फ़ंदो की तरह नही था जिसे स्थानीय आदिवासी प्रयोग करते हैं । इस घटना मे बाघिन को अपने एक पंजे और स्वतंत्रता से हाथ धोना पड़ा । सबसे लम्बी उम्र २१ वर्ष की जीवित रहने का रिकार्ड इसी बाघिन जिसका नाम शंकरी रखा गया था के नाम ही है । हाल ही मे इसका निधन रायपुर के चिड़िया घर मे हुआ है जब वह पकड़ी  गयी थी तब उसकी उम्र ६ वर्ष की थी । मैं यह तो नही जानता कि मेरी जान बख्श देने वाला बाघ वही थी लेकिन जितनी बार भी मैने उसे पिंजरे मे देखा हर बार धन्यवाद जरूर कहा ।

Friday, January 14, 2011

बाघ का अर्थशास्त्र

Jan 8, 2011



Photo by: Arunesh C Dave
बाघ संरक्षण का आर्थिक पहलू
आज भारत मे बाघो के संरक्षण को लेकर काफ़ी जागरूकता आ गयी है । और हर किसी के पास उनको बचाने के लिये एक अलग विचारधारा है । लेकिन देश मे इस दिशा मे  कार्य कर रहे अधिकांश प्रबुद्ध वर्ग एक विचार मे सहमत नजर आता है कि बाघो और आदमियो के बीच दूरी बनाना ही संरक्षण का एक मात्र उपाय है । इसी कड़ी में  आगे मेरे मित्र अजय दुबे जो  मध्यप्रदेश के एक अग्रणी पर्यावरण कार्यकर्ता है ने उच्च न्यायालय मे एक याचिका दाखिल कर राष्ट्रीय उद्यानो के कॊर क्षेत्र मे पर्यटन पर रोक लगाने की मांग की गयी है । इस याचिका के निर्णय से बाघो और राष्ट्रीय उद्यानो के आसपास रहने वाले वनवासियो के भविष्य पर गहरा असर पड़ सकता है । बाघो के संरक्षण के लिये उसके आर्थिक पक्ष पर भी गंभीर विचार करने की आवश्यकता है ।


आज भारत मे कान्हा बांधवगढ़ रणथमबौर जैसे प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यानो के आस पास रहने वाले आदिवासियो के जीवन स्तर मे अच्छा सुधार हुआ है । बड़ी तादाद मे सैलानियो के आने से इन आदिवासियो को नये रोजगार प्राप्त हुए है गाईड से लेकर होटलो के कर्मचारी तक मे इनको बड़ी तादाद मे नौकरिया मिली हैं । इन ग्रामवासियो के लिये बाघ जीविकोपार्जन का आधार बन गया है । इसके अच्छे परिणाम बाघो के संरक्षण मे प्राप्त हुये हैं आज इन गावों के आसपास किसी भी तरह का शिकार आसान काम नही रहा । बाघो पर आधारित रोजगार होने के कारण ग्रामीण इनके संरक्षक हो गये है ।

जब कान्हा से बाघिन को पन्ना स्थानांतरित करने का आदेश दिया गया तब स्थानीय ग्रामवासियो ने हड़ताल कर दी और राष्ट्रीय उद्धान का प्रवेशद्वार बंद कर दिया  अधिकारियो को उन्हे समझाने के लिये कड़ी मशक्क्त करनी पड़ी । ग्रामवासियो का तर्क था कि यदि कान्हा से बाघो को कही और भेजा जायेगा तो बाघ कम हो जायेंगे और पर्यटको का आना भी कम हो जायेगा इससे वे बेरोजगार हो जायेंगे ।

 इसके अलावा भी बाघो की एक झलक की तलाश मे घूमते पर्यटक जंगल पैट्रोलिंग का काम भी करते हैं । प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यानो के चितपरिचित बाघो की अनुपस्थिती मालूम पड़ जाती है और किसी बाघ के १०-१५ दिनो तक नजर ना आने पर किसी भी बाघ की तलाश चालू हो जाती है एवं किसी बाघ के घायल नजर आने पर वनविभाग तक खबर पहुंच जाती है और उस बाघ को तत्काल चिक्त्सीय सहायता मिल जाती है । वनविभाग पर भी अंकुश बना रहता है और उसके द्वारा बरती किसी भी लापरवाही की सूचना तत्काल मीडिया तक पहुच जाती है । चाहे कान्हा मे शिकारियो के फ़ंदे मे फ़सी बाघिन हो या बांधवगढ़ मे झुरझुरा बाघिन की मौत हो यदी ये मामले पर्यटको की निगाह मे नही आये होते तो वनविभाग कब का इन्हे गुमनामी के अंधेरे मे दफ़न कर चुका होता ।


लेकिन कोर क्षेत्र मे पर्यटन का दूसरा पहलू भी है जिसको लेकर अजय दुबे जैसे लोगो की चिंता वाजिब भी है । राष्ट्रीय उद्यानो के कुछ चुनिंदा क्षेत्रो मे वाहनो की संख्या अत्यधिक बढ़ गयी है जिससे वन्य प्राणियो के आवास क्षेत्र मे खलल पड़ने लगा है एक एक बाघ के दिख जाने पर दसियो गाड़िया उसके पीछे लग जाती हैं और उनके व्यहवार मे परिवर्तन नजर आने लगा है इससे बचना भी जरूरी है व्यहवार मे परिवर्तन आने के घातक परिणाम भी हो सकते है बचपन से ही पर्यटको के आदी हो चुके बाघो मनुष्य से दूरी बनाये रखने की स्वभाविक प्रवुत्ती छोड़ देते है हाल ही मे बांधवगढ़ के ताला गांव मे एक बाघिन अपने शावको के साथ घुस आती है और सामना होने उसने आदमियों पर हमला करना भी प्रारंभ कर दिया है । ऐसे शावको के बड़ा होने पर उनका व्यहवार कैसा होगा इसका अदांजा लगाना कठिन नही है । हालांकि वनविभाग ने इसके लिये कदम उठाए हैं और वाहनो की संख्या कॊ नियंत्रित करने का प्रयास किया है । पर एक बात और भी है जिस पर ध्यान दिया जाना अत्यंत आवश्यक है बाघ पर्यटन का लाभ कुछ चुनिंदा उन गांवो को ही मिल रहा है जिनमे  प्रवेश द्वार है राष्ट्रीय उद्यानो से लगे शेष गांव इससे अछूते है ।

राष्ट्रीय उद्यानो से लगे गांवो मे रहना हम शहरियों को रोमांचकारी लग सकता है पर उन ग्रामीणो को नही जो उनमे निवास करते हैं खेतो की उजड़ी फ़सल या किसी गाय का मारा जाना उसके भी उपर प्रियजनॊ की मौत इन मे से हर एक कारण किसी को भी बाघ का हत्यारा बना सकती है मुझे या आपको भी यदि इससे हमारे बच्चो को भूखा सोना पड़े या बच्चे ही ना रहे पर यह बात जुदा है हम और आप इस परेशानी से दूर हैं यदी आप पंचम बैगा के पिता होते जो हाल ही मे बांधवगढ मे बाघिन के हमले मे मारा गया है तो शायद आप बाघ संरक्षण के बारे मे सोच भी  नही सकते थे खासकर तब जब उस जंगल से आपको धेला भी नही मिलता हो यह बात ठीक है कि मुंबई या दिल्ली की आराम दायक जिंदगी मे बाघो पर बात करने के लिये पैसा नही लगता और यदि लग भी जाये तो फ़िर भी हमारा अस्तित्व इससे प्रभावित नही होता है  लेकिन यह बात जंगल से लगे गांव मे करना बेमानी है और वह भी तब जब इस जंगल से गांववालो को कुछ मिलना ही नही हो । किसी सम्मेलन मे कम्प्यूटर पर  या मीडिया मे बाघ संरंक्षण की बाते करना अलग बात है और  खेत मे मचान मे बैठ कर  वन्यप्राणियो को भगाने के लिये हल्ला करना , सुबह उठकर हुआ नुकसान जांचना , या अपने मरे हुए पशु को देखना  और हर नुकसान से आपके जीवन पर इसके पड़ने वाले  प्रभाव को झेलना अलग बात है |

मुख्य सवाल जो आज मुह बाये खड़ा है वह यह है कि क्या कोर क्षेत्र मे पर्यटन रोकने से गांव वालो को आर्थिक नुकसान होगा , यदि यह पर्यटन चालू रहे तो बाघो उनके रहवास क्षेत्र व्यहवार और पर्यावरणतंत्र को कितना नुकसान होगा , पर्यटन रोकने से बाघो की सुरक्षा मे क्या कॊई कमी आयेगी और क्या लाभ मिलना बंद हो जाने से ग्रामीण फ़िर बाघ विरोधी हो जायेंगे , क्या कोर क्षेत्र मे पर्यटन बंद होने के बाद वनविभाग वहां बखूबी ??? काम करता रहेगा

जो भी व्यक्ती भारत की कानून व्यवस्था से वाकिफ़ है वह यह जानता है कि किसी भी प्रकरण को मनचाहे जज तक पहुचाने की व्यवस्था हो ना हो अनचाहे जजो से दूर ले जाने की व्यवस्था तो है ही ऐसे मे जिस भी जज के पास यह प्रकरण जायेगा वह पर्यावरण का कितना जानकार है हितैषी है या नही और ऐसी अन्य कई बाते हैं जिनकी चर्चा करने पर जेल भी हो सकती है और मै अरूंधती राय की तरह पहुंच वाला आदमी भी नही हूं । अतः मै यही कह सकता हूं कि इस प्रकरण के फ़ैसले मे पर्यावरण की हार तो है ही पर कुछ जीत भी है किसी भी व्यवस्था के अनूरूप चलने पर भी मुख्य समाधान तो दूर ही है ।



मुख्य बात तो यह है कि बाघो के संरक्षण मे संरक्षित वनो से लगते हर गांव को जोड़ना होगा   और जोड़ने का मतलब यह नही कि उनको भाषण पिलायें या कंबल बाटे य क्रिसमस मनायें मतलब यह है कि उनको उस जंगल से ऐसा लाभ होना चाहिये कि वे अपने नुकसान को नजर अंदाज कर सके पहले यह नुकसान प्राक्रुतिक जंगल से मिलने वाले भोजन से पूरा हो जाता था पर अब हमने जीवन शैली को मोड़ दिया है और फ़ल और फ़ूलदार पौधो को खत्म कर दिया है और तो और उन्ही जंगलो मे सदियो से रहते आये वनवासियो का जंगल से अधिकार भी समाप्त कर दिया है ऐसे मे नुकसान की पूर्ती केवल पर्यटन से पूरी हो सकती है मुवाअजो की थाल न कभी सजी है और न कभी सज पायेगी । और शहरी धनकुबेरो होटल मे वनवासी नौकर हो सकता है संतुष्ट नही ।


 क्यों न जंगल की सीमा से लगते हर गांव मे एक सुंदर विश्राम ग्रह बनाया जाय जिसका मालिकाना हक ग्राम वासियो का हो और उस हिसाब से ही प्रवेश निर्धारित हो क्यो ना जंगल मे जाने वाली हर जिप्सी एक अलग वनवासी परिवार की हो क्यों न गॊरूमारा राष्ट्रीय उद्धान की तरह हर शाम बाहर निकलने वाले वाले पर्यटको को अलग अलग गांवो से बाहर निकाला जाय और हर उस गांव मे वनांचल का नाच दिखाया जाय और प्रवेश शुल्क से इसकी राशी वसूली जाय और क्यो ना लाभ हर उस गांव को मिले जिसे जंगल से नुकसान होता है । और तो और क्यों न जंगल मे जगह जगह मधुमक्खी पालन किया जाय जब सुंदरवन मे लोग इसके लिये जान की बाजी लगाने को तैयार है तो हमारे पास तो करॊड़ो एकड़ वनभूमी है । हालांकि यह बात भी सही है कि उत्पादन वनमंडल की वनभूमी शहरी लोगो का सागौन साल उगाती है आदिवासियो वन्यप्राणियो और मधुमक्खियों के भोजन स्त्रोत सेमल बेल जामुन आंवला इमली करौंदा जाम आम कटहल गंगाइमली बेर मुनगा  महुआ  सल्फ़ी चिरईजाम पीपल बरगद नीम पलाश यह सब पौधे उत्पादन वनमंडल के क्षेत्र मे उगाये नही जाते और राष्ट्रीय उद्धानो मे शायद किसी ने रोक लगा रक्खी है कि ना काटो ना लगाओ खैर साहब कहा सुना माफ़ करना फ़ैसला भी सामने आ जायेगा और नतीजा भी