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Monday, October 24, 2011

ट्रेन टू पाकिस्तान

दोस्तों

मैने एक नया ब्लाग बनाया है,  जिसमे पाकिस्तान में घट रही घटनाओं पर सतत जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास रहेगा। इस ब्लाग  में मेरी कोशिश रहेगी कि आप  सभी को पाकिस्तान मे चल रही गतिविधियों के बारे में जानकारी दूं। मेरे शुरूवाती लेख ही देश के प्रमुख अखबारों मे शाया हुये हैं। इसका मतलब तो साफ़ ही है कि ब्लाग जगत भी  समाचार जगत पर अब गहरा प्रभाव डाल रहा है।

पाकिस्तान- अपने बनाये जाल में फ़ंसा देश  



यह लेख पाकिस्तान की उलझन और भविष्य पर आधारित है


आपका ही

अरूणेश सी दवे



 

 

 




 

Tuesday, October 4, 2011

अमरीका, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान - एक त्रिकोणीय़ पहेली


यह तीन नाम आजकल अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाये हुये हैं। भारत में इस विषय पर कुछ खास चर्चा नही हो रही और जाहिर है सरकार भी अन्ना और बाबाओं के हाथों अपनी फ़जीहत से बचने में इतनी व्यस्त है कि इस मामले को गंभीरता से संभालेगी इस बात में शक ही नजर आता है।  अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई साहब के हालिया  भारत  दौरे के मद्देनजर इस पूरे मामले को समझना इंतिहाई जरूरी और भारत के हितो के लिये महत्वपूर्ण भी है।

आज अमेरिका अफ़गानिस्तान से बाहर निकलने के दौर से गुजर रहा है और वह अफ़गानिस्तान से जीत कर निकलना चाहता है। जाते जाते अमेरिका यहां अपनी पिठ्ठू सरकार को  मजबूत कर जाना चाहता है। पाकिस्तान की यह कोशिश है कि अमेरिका के जाने के बाद अफ़गानिस्तान में उसकी पिठ्ठू सरकार बनें, जिससे उसकी रक्षा पंक्ति को गहराई भी मिल सके और वह तालिबान के लड़ाकों को  हिंदुस्तान के खिलाफ़  इस्तेमाल कर सके।  भारत का हित  कमोबेश अमेरिका के हित के साथ जुड़ा हुआ है।  भारत अफ़गानिस्तान में अपनी पसंद की सरकार बनवाना चाहता है,  ताकि पाकिस्तान उस मोर्चे पर उलझा रहे और भारत के खिलाफ़ तालिबान का इस्तेमाल न कर सके।

इसके अलावा भी बलूचिस्तान जैसे पाकिस्तान के हिस्सों ( जहां कश्मीर की तर्ज पर ही आजादी की जंग चल रही है और हालात कमोबेश कश्मीर से भी बदतर हैं ) के अलगाववादियों की भी भारत अफ़गानिस्तान के रास्ते से मदद कर सकता है। ब्लोच राष्ट्रवादियों को भारत  कश्मीर के विवाद को सुलझाने के लिये एक लीवरेज की तरह काम मे ला सकता है और उन्हे हथियार आदि देकर अपने यहां हुयी आतंकवादी वारदातों का बदला भी चुका सकता है।


इस पूरे मामले को समझने के लिये एक बेहद दिलचस्प पहलू यह भी है कि अमेरिका को अफ़गानिस्तान की जंग में पाकिस्तान ही खींच कर लाया था।  जब तक अमेरिका अफ़गानिस्तान में बना रहे तब तक ही पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी मदद की गारंटी भी बनी  रहती है। पाकिस्तान का एक पुराना और बुरा अनुभव यह रहा कि सोवियत रूस के खिलाफ़ जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान का इस्तेमाल किया उसकी धरती को जेहादियों का स्वर्ग बना दिया। सोवियत रूस के हट जाने के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को न केवल उसके हाल पर छोड़ दिया बल्कि परमाणू बम के नाम से तमाम प्रतिबंध भी लगा दिये। इससे न केवल पाकिस्तान आर्थिक रूप से तबाह हो गया, बल्कि उसकी फ़ौज के सारे हथियार भी लगभग नकारा हो गये। क्योंकि उनके पुर्जो की सप्लाई भी अमेरिका से ही आनी थी, जिस पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था।

ऐसे में 9/11  को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुये हमले के बाद जब अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तलाश शुरू की तो उसने पाकिस्तान से कहा कि मुल्ला उमर पर दबाव डाल करर ओसामा बिन लादेन को अमेरिका के हवाले करवा दे। आप को यह भी ध्यान होगा कि मुल्ला उमर की तालिबानी सरकार पूरी तरह से पाकिस्तान और अरब देशो की सहायता पर ही निर्भर थी और वह पाकिस्तान का कहा नही टाल सकती थी। पर इस वन टाईम डील में पाकिस्तान ने लंबी डील देखी और अमेरिका को फ़िर अफ़गानिस्तान मे फ़साने की ठानी। आईएसआई के मुखिया हामिद गुल अफ़गानिस्तान में मुल्ला उमर के पास अमेरिकियों का संदेश लेकर गये पर उनसे कहा- "कोई नई , ओसामा को बिल्कुल नही देना पहले सोवियत संघ को ठिकाने लगाया और अब इस अमेरिका को भी हम यही ठिकाने लगायेंगे"।

हुआ भी यही मुल्ला उमर ने मना कर दिया और अमेरिका ने पाकिस्तान को धमकी दी कि "आतंक के खिलाफ़ लड़ाई में या तो वह अमेरिका का साथ दे या परिणाम भुगतने को तैयार रहे।"  पाकिस्तान तो तैयार बैठा ही था नवाज शरीफ़ का तख्ता पलट चुके मुशर्रफ़ को अंतराष्ट्रीय मदद और मान्यता, फ़ौज को हथियार और देश को पैसा भी चाहिये ही था। और पाकिस्तान ने अमेरिका से "फ़्रैंड्स नाट मास्टर्स" का समझौता फ़िर कर लिया।फ़िर क्या था धड़ाधड़ पैसा और हथियार पाकिस्तान को मिलने लगे और अमेरिकी अफ़गानिस्तान भर मे ओसामा और मुल्ला उमर को खोजने लगे। पर ओसामा और मुल्ला उमर तो वहां थे ही नही। वे तो पाकिस्तान की गोदी मे बैठे हुये थे, वही पाकिस्तान जो "वार आन टेरर" में अमेरिका का सबसे पक्का दोस्त था। प्यादो को मारने पकड़ने का खेल चलता रहा और अमेरिका पाकिस्तान का बिल भरता रहा।

इसी समय पाकिस्तान ने पहली गलती की, अफ़गानिस्तान में लड़ रहे तालिबान के एक धड़े जो कि पाकिस्तान मे स्वात और बाजौर के इलाके से आपरेट कर रहे थे। रणनीतिक रूप से उन पर हमला करने में अक्षम होने के कारण अमेरिका ने स्वात और बाजौर में यह काम पाकिस्तानियों पर छोड़ दिया। तालिबान की यह इकाई मुल्ला उमर के नियंत्रण से बाहर भी थी। पहले यह तालिबान के धुर विरोधी अहमदशाह मसूद के समर्थन में लड़ चुकी थी। तालिबान के इस गुट पर हमला करना  पाकिस्तान को भारी पड़ गयी और तालिबान का यह हिस्सा आज तहरीक-ए-तालीबान बन कर पाकिस्तान पर कहर बरपा रहा है। पाकिस्तान के सैकिक प्रतिष्ठानों और हालिया करांची नौसेना के एयरबेस पर हुये हमलों मे तालिबान के इसी गुट का हाथ है।


शेष अगले लेख में