साहब गणतंत्र दिवस की सुअवसर पर कई गणमान्य गणो के सुविचार जानने का सुअवर सोशल मीडिया ने जबरन प्रदान कर दिया। कोई केजरीवाल की फ़ुटवा चपकाये संसद सांसद संविधान को कोस रहा था। तो कोई "मेरा नेता चोर है" बैनर लगाये फ़िर रहा था। उनके हिसाब से जो संविधान बलात्कारियो अपराधियो भ्रष्ट लोगो को संसद मे चुने जाने की छूट प्रदान करे वह बिल्कुल बेकार है। कईयों का सीना निरीह आदिवासियो पर घनघोर अत्याचार करने वाले पुलिस अधिकारियो को पदक मिल जाने से छलनी था। तो कई बिकनी ए खास को फ़िल्मजगत मे आम करने वाली अभिनेत्री को पदम पुरूस्कार मिलने से भड़के हुये थे।
कुल मिला कर इस क्रोध के मंजर ए आम में आपस में दुश्मनी रखने वाले अनेक समूह अनेकता मे एकता की अद्भुत मिसाल दे रहे थे। दिल्ली में बलात्कार के विरोध प्रदर्शन मे पिटे हुये आंदोलन कारियों को दूर से पहचाना जा सकता था। आंसू गैस के गोले फ़ायर करती, डंडा भाजंती पुलिस का फ़ोटू इनका कामन ट्रेडमार्क मालूम होता था। हिंदू ठेकेदार संघ के लोग भी अलग से पहचाने जा सकते थे। इनके निशाने पर अग्नि मिसाईल हवाई जहाज आदि थे। इनकी राय थी जब ये हथियार पाकिस्तान पर नही चलाये जा रहे तो इनका प्रदर्शन खाली पीली नपुंसकता दिखाने के अलावे और कुछ नही। इनकी राय में इस तथाकथित सेकुलर मुल्लापरस्त संविधान से कोई आशा करना बेकार ही था। हांलांकि मेरे पूछे जाने पर ये अपने आईडियल संविधान पर कोई जानकारी विशेष नही दे पाये। मुस्लिम ठेकेदार भी अपनी राय जाहिर करने मे पीछे नही थे। एक सज्जन उर्दू मे शरिया कानून लागू किये बिना भारत मे सुख शांती स्थापित न हो पाने पर अडिग थे। हमारे द्वारा चंद सवालात पूछने पर वे थोड़ा हड़बड़ा गये। हिंदु द्वारा उर्दू पढ़ लेने पर उन्हे बेहद हैरानी थी। खैर उन्होने वक्त की क्मी का हवाला देते हुये माजरत के साथ विदा ले ली।
वैसे सबसे नरम दिल नजरिया दलित विचारको का ही था। आखिर बाबा साहेब के बनाये संविधान से लेकर बहन जी तक सारी चीजें उनके लिये श्रद्धेय कि श्रेणी मे आती हैं। हालांकि संस्कृत शब्द श्रद्धेय उन्हे स्वीकार तो न होगा लेकिन अभी दलित शब्दावली का निर्माण हुआ नही है शायद। आरक्षण विरोधी तो जाहिराना तौर पर इस संविधान के मूल प्रारूप से ही खफ़ा थे। उनकी नजर में आरक्षण के आधार पर अयोग्य को नौकरी देकर ही भारत के हालात इस स्तर तक गिर गये हैं। हालांकि हमने उन्हे याद दिलाने की कोशिश की भाई यह भ्रष्टाचार तो तब से आसमान पर है जब वी पी सिंग ने आरक्षण लागू भी न किया था। लेकिन साहब सोशल मीडिया मे सुनने की कहां होती है आसमानो से उतरो अपनी राय पेलो। सामने वाला सहमत न हो तो उसको तमाम उपाधियों नवाजो और कट लो।
सबसे संतुलित किसम का विरोध अपने एक बिलागर भाई का रहा| उनके हिसाब से मेरा भारत महान कहना ही मूर्खता है। तमाम खामिया उनकी उंगलियो की नोक पर गिनी गयीं। वैसे खामिया तो हर देश मे ही है, अमेरिका तक हजार किसम की समस्यांओ से दो चार है। साल में दो दिन अपने न सही बच्चो की खातिर तो "मेरा भारत महान" बोलना तो बनता ही है भाई। बचपन से ही मेरा भारत बेईमान सीख लेंगे तो जाने इस देश का और क्या हश्र होगा। सोचते सोचते सोचा जाये तो हमारा संविधान कैसा भी है लेकिन हर किसी को अपनी राय रखने, अपने मतभेद प्रदर्शन करने का हक तो मिला ही हुआ है। केजरीवाल संसद और व्यवस्था को कितना भी गरियाय���ं लेकिन यही व्यवस्था उन्हें प्रधान मंत्री के घर के बाहर धरना देने की छूट तो देती है कि नही। दसियों धर्म, भाषा, जति राज्यों में बटे इस देश के हर नागरिक को एक माला मे गूंथा हुआ भी इसी संविधान ने है। हिंदी हिंदू हिदुस्तान करने वालो लोगो की तरह जिन्ना ने भी उर्दू इस्लाम पाकिस्तान किया था। नतीजा क्या हुआ सिर्फ़ भाषा के आधार पर ही उसके दो टुकड़े हो गये। इस्लाम के नाम पर बनाये देश मे मस्जिदो दरगाहों इमामबाड़ो मे रोज बम धमाके हो रहे हैं। और बलोचिस्तान अलग देश बनने की कगार पर है।
मुझे भी अपने संविधान मे एक कमी खलती है। यह आदिवासियो के हकों की रक्षा करने मे नाकाम रहा है। चौसठ सालो मे आज तक उनके हितो के लिये कोई राजनैतिक आंदोलन खड़ा नही हो पाया। दिल्ली के बुद्धीजीवी, पत्रकारिता के गलियारे मे एक भी आदिवासी विचारक नही। सांसद और विधायक भी जो बने हैं सारे आदिवासी जमींदार परिवारो के है।
आरक्षित नौकरियों का अधिकांशतम हिस्सा इसाई धर्म अपना चुके उच्च शिक्षित परिवारो को चला गया। उसके जंगल वन विभाग ने साल सागौन के बागान बना दिये। और उसके सशस्त्र विरोध आंदोलन तक का नेतृत्व बंगाल, आंध्रा के वामपंथियो के हाथ मे है। मूल आदिवासी आज भी अपनी जगह ठगा हुआ खड़ा है।
लेकिन इन तमाम खामियों को दूर कर हमे अपने सपनो का प्यारा भारत बनाना है। बनने तक क्या किया जाये पर गालिब का एक शेर याद आ रहा है-
आशिकी सब्र तलब, तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं, खून ए जिगर होने तक