Tuesday, November 20, 2012

मी बाल ठाकरे बोलतो


बाला साहेब ठाकरे को उनके जाने के बाद भी लोग अलग अलग कारणो से याद कर रहे हैं। विरोधी उनकी शव यात्रा में उमड़ी भीड़ का उचित संबंध नफ़रत की राजनीती से जोड़ रहे हैं। आम भारतीय एक ऐसे आदमी की शव यात्रा में उमड़े लाखों लोगो को देखकर अचंभित था। समर्थक तो उनसे अथाह स्नेह करते ही थे। हालांकि इन सभी में बाल ठाकरे को पहचानने वाला कोई नही था। बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट थे, एक कार्टूनिस्ट या व्यंग्यकार वही हो सकता है जिसका राजनैतिक आकलन बहुत तगड़ा हो, जो निर्भीक हो और जो अंदर से कम्यूनिस्ट हो। जिसमे विरोधाभास को पहचानने और व्यक्त करने की जबरदस्त क्षमता हो। बाला साहेब  माओ, लेनिन की किताब पकड़े घूमते कम्यूनिस्टो से भी ज्यादा कम्यूनिस्ट थे। यह विरासत उन्हे अपने पिता से मिली थी। वे कामरेड डांगे को शिवसैनिको को भाषण देने और समाजशास्त्र का पाठ पढ़ाने बुलाते थे। बाला साहेब ने कम्युनिस्ट विचारधारा को मुंबई की परिस्थितियो के हिसाब से अपनाया। और मजे की बात सारे कम्युनिस्ट मजदूर संगठनो को मुंबई से बाहर कर दिया। जब कलकत्ता में एक के बाद एक फ़ैक्ट्री बंद कराने में कम्युनिस्ट लगे थे। तब बाला साहेब के संरक्षण मे मुंबई तेजी से औद्योगिक विकास कर रही थी। वह भी लेबर डिस्प्यूट के बिना, मजदूरों के हितो का ध्यान रखते हुये।

 मराठीवाद,गैरमराठियो का विरोध बाला साहेब का प्रमुख मुद्दा था।   दरअसल किसी भी महानगर में प्रवासियो के बड़ी संख्या में आने से स्थानीय लोगो के हितों का नुकसान होता है। प्रवासी चूंकि पिछड़े इलाको से आते हैं,  वे कम दर पर मजदूरी जैसे काम करने को तैयार हो जाते है। साथ ही परिवार के साथ रहते लोगो की अपेक्षा, अकेले रहते प्रवासी आसानी से अपराध में शामिल हो जाते है। ऐसे में प्रवासियो से किसी भी महानगर का राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है। राष्ट्रीय दल इस मुद्दे को उठा नही सकती सो स्थानीय दलो को इससे जनाधार बढ़ाने का मौका मिल जाता है। करांची में तो भाषाई आधार पर बने राजनैतिक दलो नें हथियार बंद दस्ते बनाये हुये हैं। जहां दर रोज आपसी झगड़ो में दस से ज्यादा आदमी मारे जाते हैं। इसके मुकाबले मुंबई मे स्थायी तौर पर रहने वाले प्रवासियों को किसी बड़े भेदभाव का अमूमन सामना करना नहीं पड़ता। और बाला साहेब ने विरोध का अत्यधिक मुखर तरीका प्रयोग जरूर अपनाया। लेकिन पिछले चार दशको मे कभी आपसी तनाव भी नही पनपने दिया, करांची के सामने तो मुंबई प्रवासियों का स्वर्ग है।

बाला साहेब पर मुसलमान विरोधी होने और उग्र बयान देने का भी आरोप लगता रहा है और वे देते भी रहे हैं। लेकिन 1992 के दंगो के अलावा उन्होने बंबई में कभी दंगा होने भी नही दिया। मुंबई दंगो के वक्त बाबरी मस्जिद कांड के बाद मुंबई के कतिपय मुल्लाओं ने कट्टरपंथी भावनाओ को बहुत भड़का दिया था। इस्लाम खतरे में है के नारे के साथ उग्र युवाओ के बड़े दल हिंसक वारदाते कर रहे थे। पंदरह दिनो तक वहा हिंदुओ पर लगातार हमले होते रहे और उसके बाद बाला साहेब ने शिवसैनिको को जवाबी कार्यवाही के लिये कहा। उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। मुस्लिम युवाओं को भड़काने वालो का कुछ नही बिगड़ा। मासूम बेगुनाह हिंदु और मुसलमान मारे गये।  यह बात भी कम लोगो को ही पता होगी कि उस दंगे को रोका भी बाला साहेब ने था। शिवसैनिको की कार्यवाही शुरू होने के तीसरे दिन ही बाला साहेब को यह अहसास हो गया था कि बेगुनाह मुसलमान मारे जा रहे है। फ़िर भी दंगा रोकते रोकते हफ़्ता गुजर गया अपराधिक तत्वो ने बेतरह लूट मार मचाई। विडंबना यह थी कि दंगा शुरू करने में प्रवासी मुसलमानो का उपयोग किया गया और लूट मार में शामिल ज्यादातर प्रवासी हिंदु ही थे। उस दंगे के बाद दो दशक से उपर बीत गये बाला साहेब ने मुंबई में दूसरा दंगा होने नही दिया। कितने बम धमाके हुये, आतंकवादी हमला भी हुआ।  भारत में दंगे करवा कर सत्ता चाहने वाले भगवा दल और मुस्लिम परस्त राष्ट्रीय क्षेत्रीय दलो की लिस्ट सभी को पता है।  लेकिन बाला साहेब एक ऐसे शख्स थे जिसके इशारे भर से दंगा हो सकता था। रतन टाटा ने शोक संदेश में कहा "भले वो विवादास्पद बयान देते थे लेकिन उन्होने अपने सिद्धांतो से कभी समझौता नही किया। "

वे बयान तो खतरनाक देते थे उसमें कोई शक नही। बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिये कई लोग सुबह शाम स्कीम बनाते रहे। भारत भर में रथ घुमाया, ईंट और चंदा लिया आखिर जब कामयाब हो गये तो इतिहास का काला दिन बता दिता। बाला साहेब ने कुछ नही किया, सिर्फ़ कहा "मेरे आदमी थे।" और करोड़ो ऐसे आदमियो का समर्थन प्राप्त कर लिया जिन्हे "सौगंध राम की खाते है" का नारा लगा लगा कर भाई लोगो ने उकसा दिया था। वे बेचारे क्या जानते थे कि अगली लाईन "चंदा हम खायेंगे" होगी। खैर हजारो बातें ऐसी है कि बाला साहेब पर मोहित हुआ जा सकता है या क्रोधित। लेकिन वे ऐसे आदमी तो थे ही जो अपने बयानों और विचारधारा पर अंत तक कायम रहे। यहां तो सुबह गड़करी को क्लीन चिट देकर शाम को "हमारा लेना देना नही है" का बोर्ड लगाने वाले लोग भी है। और जब जाकिर नाईक इस देश में अपने महाविचार बांटते इस्लाम की तथाकथित सेवा करते घूम सकते है। तो बाला साहेब को भी थोड़ा डिस्काउंट दिया ही जा सकता है। आखिर वोट बैंक की राजनीति ही तो इस देश का मूलमंत्र है। और बाला साहेब ही एक ऐसे नेता थे जो राजनितिक चालो और बयानो मे असमानता नही रखते थे
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3 Comments

3 comments:

  1. sahi kaha sir.......

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  2. एक व्यंगकार का गंभीर लेखन काफी उम्दा है और मैं इससे शत प्रतिशत सहमत हूँ । साधुवाद आपको इस गंभीर एवं सार्थक लेख हेतु । ।। जय हो , ऐश करो ॥

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  3. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ...

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